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दर्द को क्यों आज मेरी याद आई है ....

दर्द को क्यों आज मेरी याद आई है
हो रही मद्धम सफ़ों की रोशनाई है।

मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?

आजमाता ही रहा मौला मुझे हर वक़्त
खूब किस्मत है गज़ब की आशनाई है।

माना जर्रा भी नहीं हम कायनात के
तेरे दर तक हर सड़क हमने बनाई है।

मेरे सूने से मकाँ में मेहमान बन के आ
बियाबाँ में बहारों की बज़्म सजाई है ।

दरिया के किनारों सा चलता रहा सफ़र
इस ओर ख्वाहिशें हैं उस ओर खुदाई है।

-ललित मोहन पन्त

12. 52 दोपहर
20 .08 .2013

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 3:25pm

भाई, ज़िग़र और गुर्दे तो ज़रूर चाहिये होते हैं ..लेकिन अब इतने भी बड़े नहीं कि पेट हरदम फूला हुआ दिखाई दे. उसका ढोना फिर मुश्किल हो जाता है. . :-))))))))

Comment by dr lalit mohan pant on August 27, 2013 at 3:06pm

Saurabh Pandey जी ,अच्छा हुआ आपने जिगरे और गुर्दोँ की याद दिला दी वो तो इतने बड़े हैं क़ि मुश्किल से सम्भलते हैं …. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 12:52am

आदरणीय ललितजी, इस मंच के सदस्य उस्ताद के पीछे नहीं भाग कर आपस में सीखते हैं. बशर्ते कोई वाकई सीखने का ज़िगरा रखता हो और महनतके लिए गुर्दा रखता हो.

ग़ज़ल पर बहुत कुछ उपलब्ध है यहाँ. आप आगे तो बढ़ें.

Comment by mrs manjari pandey on August 25, 2013 at 3:13pm

      आदरणीय ललित मोहन जी कहीं दिल के कोने से आपने  बात कह दी . रचना अच्छी लगी

       मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 24, 2013 at 1:28pm

गज़ल लिखने की बहुत सुन्दर कोशिश है आ० डॉ० ललित मोहन पन्त जी 

गज़ल लिखते हुए बहर को भी साथ में ज़रूर लिखा दिया करें पाठक को समझने में आसानी होती है 

इस सद् प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ 

Comment by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 2:41pm

सुन्दर प्रयास है-

दर्द को क्यों आज मेरी याद आई है 
हो रही मद्धम सफ़ों की रोशनाई है। 

मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे 
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?

-बधाई!

Comment by dr lalit mohan pant on August 21, 2013 at 3:31pm

Abhinav Arun जी सीखने की कोशिश में हूँ उस्ताद ढूंढ रहा हूँ कोई मेरे लिखे का इस्लहा कर मुझे रास्ता दिखा दे   …. मुश्किल लगता है फिर हार जाता हूँ तो लगता है जैसा है वैसा ही सही  …मेरे लिये  तो यह रिल़ेक्ष  होने का एक ही जरिया है  …. कोशिश करते करते लगता है मैं भी सीख जाऊँगा एक दिन   … ऐसे ही इंगित करते  रहेंगे तो  आभार होगा। … 

Comment by dr lalit mohan pant on August 21, 2013 at 3:21pm

जितेन्द्र 'गीत' जी तारीफ और और रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया   …. 

Comment by dr lalit mohan pant on August 21, 2013 at 3:18pm

 SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR  आपकी हौसला अफजाई का शुक्रिया  …  

Comment by Abhinav Arun on August 21, 2013 at 7:09am

भाव और उदगार अच्छे हैं। ग़ज़ल की तकनीक की जानकारी अपेक्षित है । 

कृपया ध्यान दे...

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