Comment
इस रचना ने मुझे दूर तक छुआ है. कारण कि, आपकी ही उम्र में मैंने भी लिखा था --
चाहे जो हो / कुछ करे / मेरा आसमान सिगरेट नहीं पीता है...
और जाने क्या-क्या.. :-))
आज तो वह कविता जाने कहाँ होगी, मेरे पास नहीं है.
आज फिर सिगरेट एक कवि का उसी तरह से मिलता-जुलता बिम्ब बना है. बधाई
भाई, इलाहाबाद कब आवत बाड़ऽ.. ? सर्हियाइ के बधाई देतीं. हा हा हा .. .
ज़िंदगी को परिभाषित करती एक अलग सी अभिव्यक्ति..
हार्दिक बधाई
आदरणीय विवेक जी:
//जो छूट गए हैं भीतर ही कहीं
पड़े हुए हैं चिपक कर, टिककर..
इन दिनों एक-एक कर मैं
उन्हीं ख़्वाबों को
मुकम्मल करने में लगा हूँ.//
वाह...वाह...वाह! बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय मिश्र जी , जिंदगी और सिगरेट का बहुत खूब तारतम्य बैठाया आपने ,
वाह बेहतरीन नज्म विवेक जी !
बहुत सुन्दर है विवेक मिश्र जी !
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