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!!! कुण्डलियां !!!

तपता सूरज देख कर, मौसम है बेहाल।
तरू, उपवन, जन ताप से, नित.नित हुए हलाल।।
नित.नित हुए हलाल, निरूत्तर ठगे खडे़ हैं।
निर्वस्त्रहि भी ढाल, धर्म में डटे अड़े है।।
अब कालहु का काल, इन्द्र भगवन को जपता।
धरा करे चित्कार, जेठ सूरज सा तपता।।

के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by ram shiromani pathak on June 15, 2013 at 6:13pm

वाह वाह आदरणीय भाई केवल जी //बहुत ही सुन्दर कुण्डलिया लिखी है अपने //हार्दिक बधाई 

Comment by vijayashree on June 15, 2013 at 6:04pm

सूरज का तप देख के , हाल है बेहाल

इन्द्र देवता अब करो , कुछ हमारा ख्याल

 

समसामयिक कुण्डलियाँ / बधाई

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 15, 2013 at 1:31pm

आदरणीय केवल भाई जी बहुत गर्मी की यथावस्था का कुण्डलिया छंद के माध्यम से सुन्दर वर्णन किया है आपने इस हेतु मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकारें.

दोहा छंद में जगण दोष है ( क्ष, बाग = १२१) भाई जी शुद्ध वृक्ष होता है बृक्ष नहीं. सादर

Comment by Shyam Narain Verma on June 15, 2013 at 12:49pm

आदरणीय...उम्दा रचना के लिए शुभकामनाऐं.....................

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 15, 2013 at 8:35am

आ0 जितेन्द्र प्रसाद जी,  सराहना एवं उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 15, 2013 at 7:26am
आदरणीय..केवल प्रसाद जी, हार्दिक शुभकामनाऐं ..सुंदर रचना "अब कालहु का काल, इन्द्र भगवन को जपता! धरा करे चित्कार, जेठ सूरज सा तपता!!....

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