चांद सितारे
चुप से हैं।
रात
घनेरी छाई है।।
तेज घनी
दुपहरिया में
अब अंगार बरसते हैं।
तपती
बंजर धरती पर
पांव धरें
तो जलते हैं।
पेड़ की
टूटी शाख पर
इक कोंपल
मुरझाई है।।
चिटक गयीं
दीवारे भी
छत से
बूंद टपकती है।
जमीं
सहेजी थी मैंने
मुझसे
दूर खिसकती है।
नयनों की
परतें सूखी
दिल में
सीलन छाई है।।
देखो
अब आशाओं के
पंख झड़े
तन सूख गए।
कितने कितने
सपनों के
श्वास से
संग छूट गए।
बस
टूटा बिखरा सा ये
जीवन
इक भरपाई है।।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाषित)
Comment
आदरणीया गीतिका जी मेरी रचना पर आपकी उपस्थिति से मैं धन्य हुआ। आपको रचना पसंद आयी मेरा प्रयास सार्थक हुआ। आपका हार्दिक आभार!
सादर!
कितना खूब सूरत नवगीत लिखा आपने आदरणीय बृजेश जी!
मैंने इस रचना को पहले नही देखा, इसलिए मै सबसे पहले माफ़ी मांग लेती हूँ, फिर बधाई देती हूँ आपको!
//नयनों की परतें सूखी और दिल में सीलन छाई है// ,,, क्या कहने, अद्भुत कोम्बो प्रयोग!
// देखो अब आशाओं के पंख झड़े, तन सूख गये// ,,,, बहुत ही प्रभाव शाली पंक्ति ,,
अति सुंदर नवगीत बना है!
आपको हार्दिक बधाई प्रेषित है!!
आदरणीय यतीन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय चिराग जी आपका हार्दिक आभार!
behad sundar rachna mere dil chu gayi
yatindra
निशब्द.......बहुत ही गहराई लिए हुए है ये रचना ...क्या कहूँ कुछ समझ नहीं आता ...किन्तु बेहद मर्मस्पर्शी .........
आदरणीय केवल भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय रक्ताले साहब आपका हार्दिक आभार!
देखो
अब आशाओं के
पंख झड़े
तन सूख गए।
कितने कितने
सपनों के
श्वास से
संग छूट गए।
बस
टूटा बिखरा सा ये
जीवन
इक भरपाई है।।...........वाह! बहुत सुन्दर.
आदरणीय बृजेश जी सादर बहुत सुन्दर नवगीत रचा है सादर बधाई स्वीकार करें.
आदरणीय सौरभ जी
प्रथम तो आपका बहुत आभार! आभार कि आपने मेरे प्रयास को सराहा। आभार कि आपने मेरी सोच को दिशा दी।
कितने कितने आभार! शायद आपकी मेरी रचना पर टिप्पणी किसी आभार की सीमाओं को लांघकर आगे जा चुकी है जहां आभार व्यक्त नहीं किए जाते हैं दिल से सिर्फ महसूस किए जाते हैं। जहां आभार व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते। मैं निःशब्द हूं। बस महसूस कर रहा हूं आपके कहे को।
अज्ञेंय का जिक्र और उनकी वह पंक्ति, उसके बाद आपकी रचना। किसी सपनों की दुनिया से सैर कर लौटा हूं।
अपनी इस रचना को मैंने अपनी भाव चेतना में लिखना प्रारम्भ किया और फिर अनायास न जाने कैसे फुटपाथ पर रहते लोग मेरे दिमाग में आ गए। वहीं रचना का अंत हो गया।
आदरणीय कल्पना रमानी जी और आपने जो दृष्टिकोण मेरी सोच को दिया है वह महत्वपूर्ण है और रचनाकार के रूप में विकास के लिए महत्वपूर्ण भी। उसे आत्मसात करने का प्रयास करूंगा।
एक बार फिर से आपका आभार!
सादर!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online