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परेशां है समंदर तिश्नगी से - ग़ज़ल

परेशां है समंदर तिश्नगी से 
मिलेगा क्या मगर इसको नदी से

अमीरे शहर उसका ख़ाब देखे  

कमाया है जो हमने मुफलिसी से

 

पुराना मस्अला ये तीरगी का 
कभी क्या हल भी होगा रोशनी से 

यहीं तो खुद से खा जाता हूँ धोका 
निभाना चाहता हूँ मैं सभी से 

नदी वाला तिलिस्मी ख़्वाब टूटा 
भरा बैठा हूँ अब मैं तिश्नगी से 

भुला बैठे जो रस्ता उस गली का  
गुज़रना हो गया किस किस गली से

 

खुशामद भर है जो महबूब की तो,  
मुझे आजिज समझिए शाइरी से

 

पुराना है मेरा लहज़ा यकीनन

मगर बरता है किस शाइस्तगी से

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 1:36pm

बढिया शेर हुए हैं, वीनस भाई.  इन अश’आर पर विशेष बधाई और दाद है -

पुराना मस्अला ये तीरगी का 
कभी क्या हल भी होगा रोशनी से 

यहीं तो खुद से खा जाता हूँ धोका 
निभाना चाहता हूँ मैं सभी से 
भुला बैठे जो रस्ता उस गली का  
गुज़रना हो गया किस किस गली से

पुराना है मेरा लहज़ा यकीनन

मगर बरता है किस शाइस्तगी से..

बहुत खूब ..

Comment by Shyam Narain Verma on April 26, 2013 at 1:27pm

बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

कृपया ध्यान दे...

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