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ग़ज़ल : झपकती पलक और लगती दुआ है

वज्न : १२२ , १२२ , १२२ , १२२ 
बहर : मुतकारिब मुसम्मन सालिम

झपकती पलक और लगती दुआ है,

अगर मांगने में तू सच्चा हुआ है,

जखम हो रहे दिन ब दिन और गहरे,

नयन की कटारी ने दिल को छुआ है,

नहीं बच सकेगा जतन लाख कर ले,

नसीबा ने खेला सदा ही जुआ है,

न बरसात ठहरी न मैं रात सोया,

कि रह रह के छप्पर सुबह तक चुआ है,

सुखों का गरीबों के घर ना ठिकाना,

दुखों ने मुफत में भरी बद - दुआ है .....

( मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on April 1, 2013 at 8:28pm

वाह के साथ आह भी निकाल दी आपने अरून भाई। बहुत सुन्दर। बधाई स्वीकारें।

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 1, 2013 at 3:20pm

हार्दिक आभार आदरणीय गुरुदेव श्री आपकी टिप्पणियां सकारात्मक उर्जा की श्रोत हैं, प्रयास को और अच्छा करने हेतु उत्साहित करती हैं, स्नेह और आशीष यूँ ही बनाये रखें सादर.


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Comment by Saurabh Pandey on April 1, 2013 at 2:57pm

भुजंगप्रयात छंद के समकक्ष इस बह्र पर आपकी कोशिश बेहतर हुई है, अरुन भाई. 

मतले में जिस आश्वस्ति और विश्वास का मुज़ाहिरा हुआ है वह कहन को और सुगढ़ कर रहा है.

अधो उद्धृत दोनों शेर निजी तौर पर मुझे अच्छे लगे. क्योंकि दोनों की सानी ने चौंकाया है.

जखम हो रहे दिन ब दिन और गहरे,
नयन की कटारी ने दिल को छुआ है, .. . . . सानी में मैं दार्शनिक कथ्य की अपेक्षा कर रहा था. हा हा हा... . 

जखम के सही स्वरूप को तो आप जानते ही होंगे. लेकिन प्रयुक्त विशिष्ट ’कटारी’ से तो ’जखम’ ही बना होगा जो मुसलसल गहराता हुआ जा रहा है.  अच्छा लगा आपको ’जखमी’ देखना.. .   :-))

न बरसात ठहरी न मैं रात सोया,
कि रह रह के छप्पर सुबह तक चुआ है,.. .  ठीक उलट यहाँ उला के व्यवहार से मन मुलायम हुआ जा रहा था.  .. :-)))

एक सधे हुए प्रयास पर मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकार करें, भाई अरुनजी.. .

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 1, 2013 at 1:37pm

भाई विजय मिश्र साहब ग़ज़ल आपको पसंद आई इस हेतु हार्दिक आभार स्नेह यूँ ही बनाये रखें. सादर

Comment by विजय मिश्र on April 1, 2013 at 1:12pm
तारीफ के काबिल और मौजू तो सूफियाना है , अच्छी ग़ज़ल दी अरुनजी , बधाई

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