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किसी से
कुछ भी माँगना
मुझे लगता है
बहुत बुरा...

कुछ भी मांगने से पहले
करना पड़ता है अभ्यास
कैसे हुआ जाएगा प्रस्तुत
देने वाले के सामने
समय कौन सा उचित हो
जब दाता का मूड ठीक हो
किस अंदाज़ में माँगा जाए
भाषा कैसी हो
कि पिघल जाए दाता...

मांगने का अर्थ है
कि गिरवी रख दिया जाए
अपना समूचा अस्तित्व
साथ ही मन में
रहा आये संशय
कि मांगने पर भी
कुछ न मिले तब....?

बड़ी शर्मिंदगी भर देता है
मांगने का अहसास
मेरे खुद्दार अब्बा
इसीलिये कहते हैं
कि मांगना है बेटा
तो मांगो शाह से
भिखारी से नहीं....

और इस नज़रिए से देखता हूँ
तो हर शाह मुझे
भिखारी दिखलाई देता है....
और मैं बिन मांगे लौट आता हूँ...

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 30, 2013 at 7:21pm

मांगना है तो  मांगो शाह से, भिखारी से नहीं....
और इस नज़रिए से देखता हूँतो हर शाह मुझे
भिखारी दिखलाई देता है.... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति (रहिमन वे नर मर चुके -----

हार्दिक बधाई आ अनवर भाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 30, 2013 at 2:37pm

मांगना है बेटा
तो मांगो शाह से
भिखारी से नहीं....

और इस नज़रिए से देखता हूँ
तो हर शाह मुझे
भिखारी दिखलाई देता है....

सहजता से एक बड़े दर्शन को सांझा किया है आपने इस अभिव्यक्ति में आ० अनवर जी, 

हार्दिक बधाई इस रचना पर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 30, 2013 at 12:51pm

मांगना है बेटा
तो मांगो शाह से
भिखारी से नहीं....

और इस नज़रिए से देखता हूँ
तो हर शाह मुझे
भिखारी दिखलाई देता है....

आपने अभी तक के प्रतीकों के साथ जितना और जैसा साहसिक प्रयोग किया है वह आपके रचनाकर्म में स्थायित्व और अपार अनुभव के प्रति आश्वस्त करता है. 

अनवर भाईजी, आपकी रचनाओं में जो अंतर्धारा है उसका वेग अत्यंत संयत है. यही मुझे रुचिकर लगता है.

सादर बधाई. ..

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