==========दोहे===========
मैं है सूचक दंभ का, मैं ही एक असाधु
इस मैं को जो हम करे, हो जाए वो साधु
परहित गंगा कर्म की, सुधिजन जाने मर्म
लोभ मोह है गंदगी, निंदा नीच निधर्म
देवी माता गौ धरा, नारी के उपमान
हाथ जोड़ इनका करें, सब आदर सम्मान
अज्ञानी बेशर्म जस, कट कट बढती बेल
ज्ञानी काटे बेल को, कभी न हो फिर मेल
उल्लू डोले रात भर, अंधियारा ही भाय
मूरख काली कोठरी, बैठ उजाला खाय
मँहगाई सुरसा भयी, दिन दिन दुगनी होय
विचरे हाहाकार कर, हनुमत दिखे न कोय
मूरख है ब्रह्मास्त्र सा, पल पल मारे धीर
क्रोध करे धीरज तजे, हारे इससे वीर
गुरुजन सावन माह से, शंक जेठ का ताप
ज्ञान वृष्टि करके गुरु, हरे सकल संताप
नाते सब ही मानते, फिर भी जाते भूल
सुन्दर सृष्टि का यहाँ, केवल नारी मूल
कलयुग की माया बड़ी, रखना खुद से आस
अपने भी छोड़ें नहीं, करना खूब प्रयास
संदीप पटेल "दीप"
Comment
बहुत सुन्दर भाव कथ्य सान्द्र, उत्तम दोहे लिखे हैं प्रिय संदीप जी,
इस दोहावली के लिए हार्दिक बधाई.
आदरणीय संदीप जी सादर, बहुत सुन्दर दोहे. और अंतिम दोहे के व्यंग ने तो मन मोह लिया है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बेहद प्रभाव शाली दोहे बने हैं एक से बढ़कर एक जहां सौरभ जी ने इशारा किया है उसे ठीक कर लें बस फिर क्या कहने हार्दिक बधाई
भाव और कथ्य के लिहाज से किस दोहे को सराहूँ और किसे रहने दूँ ! बहुत ही सुगढ़ प्रयास हुआ है, संदीपभाईजी. मेरी हार्दिक बधाइयाँ.
कुछ दोहे तो झूम-झूम जाने को विवश करते हैं. जैसे -
अज्ञानी बेशर्म जस, कट कट बढती बेल
ज्ञानी काटे बेल को, कभी न हो फिर मेल
उल्लू डोले रात भर, अंधियारा ही भाय
मूरख काली कोठरी, बैठ उजाला खाय
तो नीति परक दोहे अपने आप में बानगी हैं -
मैं है सूचक दंभ का, मैं ही एक असाधु
इस मैं को जो हम करे, हो जाए वो साधु
परहित गंगा कर्म की, सुधिजन जाने मर्म
लोभ मोह है गंदगी, निंदा नीच निधर्म
देवी माता गौ धरा, नारी के उपमान
हाथ जोड़ इनका करें, सब आदर सम्मान
परन्तु, अंतिम तीनों दोहे शिल्प की दृष्टि से कमजोर हैं. लगता है, आपने इनके होने में ज़ल्दबाज़ी की है. गुरुजन सावन माह वाला दोहा तो हर तरह से समय मांग रहा है. इसका दूसरा विषम चरण तो किसी तरह से शिल्प की कसौटी पर ख़ारिज़ होगा.
लेकिन कुल मिला कर आपका प्रयास बधाई का हकदार है.
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