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ग़ज़ल "मिटती नहीं वो दीप तो कितने जला दिए"

==========ग़ज़ल==========

बहरे मुजारे मुसम्मन् अखरब मक्फूफ महजूफ
वजन ==221  /2121/ 1221 /212


हमसे मिला निगाह महज मुस्कुरा दिए
आँखों में कुछ हसीन से सपने सजा दिए 

करते हो हमसे इश्क या हमदर्द हो मेरे
पूछा कभी तो शर्म से पलकें झुका दिए

वादा किया था साथ निभाने का उम्र भर 
रुखसत के वक़्त आ के वो वादा निभा दिए 

नज़राना क्या दें आपको ठहरे गरीब हम
चाहत निभाने अश्क के मोती लुटा दिए 

तोड़े सभी रिवाज सभी रश्म तोड़ दी  
सारे उसूल इश्क की खातिर मिटा दिए 

फुरकत के वक़्त आपसे आईं यूँ गर्दिशें 
मिटती नहीं वो दीप तो कितने जला दिए 

संदीप पटेल "दीप"

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 574

Comment

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Comment by लतीफ़ ख़ान on January 17, 2013 at 10:32pm

जनाब संदीप जी ,,,ग़ज़ल के लिए बधाई ,,, कोशिशें हमेशा कामयाब होती हैं ,,, मशक करें ,, इस्लाह लें | आदरणीय सौरभ जी ने जो कमेंट्स दिए हैं उस पर अमल करें | यह शेर अच्छे बन पड़ें हैं ,,,,,१ नजराना क्या दें ,,,,२,तोड़े सभी रिवाज ,, पुन: बधाई ,,,,,

Comment by Shanno Aggarwal on January 17, 2013 at 8:26pm

खूबसूरत ग़ज़ल......

Comment by upasna siag on January 17, 2013 at 5:08pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल .........

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 17, 2013 at 4:02pm

बहुत बहुत शुक्रिया आपका अनंत भाई सादर आभार

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 17, 2013 at 11:33am

मित्रवर छा गए आप, लाजवाब ग़ज़ल कही है वाह वाही के हकदार हैं आप दिली दाद हार्दिक बधाई.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 16, 2013 at 3:49pm

आदरणीय गुरदेव सौरभ सर जी सादर चरण स्पर्श 
सर्वप्रथम तो आपका बहुत बहुत आभार जो आपने शिष्य ग़ज़ल पर अपनी दृष्टि डाली और हौसलाफजाई की 
तत 
गुरुदेव कहीं न कहीं कुछ त्रुटियाँ जल्दबाजी की वजह से हो ही जाती हैं 
ग़ज़ल कहने के लिए 
पहले एक शेर कहो 
फिर उस शेर के वजन को बहर की कसौटी पर कसो 
फिर वजन के आधार पर जिहाफों का नामकरण 
थोड़ा कठिन  है 
मैंने नाम सही लिखा लेकिन अंत में सब गुड गोबर हो गया  
गुरुदेव अब मैं जिहाफों को भी याद करूंगा ताकि आगे ऐसी  गलती नहीं हो 
अपना आशीर्वाद और  स्नेह यूँ ही बनाये रखिये 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 16, 2013 at 3:49pm

आदरणीय गुरदेव सौरभ सर जी , आदरणीया डॉ प्राची जी , आदरणीया राजेश कुमारी जी ,  आदरणीय आशीष भाई जी सादर प्रणाम

ग़ज़ल के अशआर आपको भाये कहन सार्थक हुई 
इस जर्रानवाजी के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया 
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 16, 2013 at 10:11am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल प्रिय संदीप जी, हर एक शेर दिल को छू रहा है, 

और ये वाला शेर

 करते हो हमसे इश्क या हमदर्द हो मेरे 
पूछा कभी तो शर्म से पलकें झुका दिए ...

तो बस वाह वाह ,

हार्दिक बधाई क़ुबूल करें 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 16, 2013 at 9:26am

फिर से एक सुन्दर ग़ज़ल के लिए दाद कबूल करें 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 16, 2013 at 12:21am

करते हो हमसे इश्क या हमदर्द हो मेरे
पूछा कभी तो शर्म से पलकें झुका दिए  .........  वाह भाई वाह ! क्या अंदाज़ है !

फुरकत के वक़्त आपसे आईं यूँ गर्दिशें 
मिटती नहीं वो दीप तो कितने जला दिए..   .. मक्ता में तखल्लुस का सुन्दर प्रयोग हुआ है..

दाद कुबूल करें.

और बह्र के वज़्न को कैसे लिखा है ?

यह   221  2121 1221 212  की तरह होगा.

 

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