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प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम

तेरे बिन दिल को चैन नहीं है
मन कहे मुझसे तू यहीं कहीं है
शब् भर आँखें जाग रहीं है
निन्दिया मुझसे मेरी भाग रही है

वो जो पायलिया पहनी थी तुमने
करे हरदम कानों में रुन झुन

प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम

हर-सू गुलशन में फूल खिले हैं
चाहत की राहों में खार मिले हैं
पंछी करते हैं अब शोर सुबह से
लेकिन मेरे तन्हा होंठ सिले हैं

सर्दी के मौसम में दिल ये जले है
अँखियों से गिरती है शबनम

प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम

मुझको नहीं आता है तुझे मनाना
तू तो रूठी है यूँ करके बहाना
दिल के अन्दर कोई देख न पाता
क्यूँ पत्थर दिल मुझको कहे ज़माना

घूमे थे संग संग जिन गलियों में
फिरता हूँ अब तो मैं गुमसुम

प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम

अब न सता तू लौट के आजा
बदली बनके बंजर दिल में छा जा
साँसे कहती मेरी जान है तू ही
जिस्म में बनके मेरी रूह समा जा

अक्स हूँ तेरा मैं तो हमदम
मिल जाओ तो हो जाएँ हम तुम

प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम

संदीप पटेल "दीप"

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Comment by Shyam Narain Verma on December 13, 2012 at 3:17pm

BAHOT KHOOB

 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 12, 2012 at 5:33pm

आप  सभी का इस जर्रानवाजी के लिए हृदय से शुक्रिया और सादर आभार
ये स्नहे अनुज पर यों ही बनाये रखिये

आदरणीय झा साहब ये दिल की दास्ताँ है
और लगता है सब कवी विरह श्रृंगार को ऐसे ही देखते होंगे तो
इसीलिए ये इत्तेफाक हुआ होगा

Comment by Dr.Ajay Khare on December 12, 2012 at 2:04pm

bichoh ka marmik chintan and lekhan sandeep ji aap badai ke hakdaar he


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 12, 2012 at 12:37pm

 संदीप पटेल जी..

प्रिय के विछोह को बर्दाश न कर पाते... 

 साथ को तड़पते ह्रदय के शालीन उद्गारों को सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है...हार्दिक बधाई 

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 12, 2012 at 11:11am

सुन्दर गीत रचा है संदीप भाई बधाई स्वीकारें

Comment by वीनस केसरी on December 12, 2012 at 2:02am

शानदार ...

Comment by राजेश 'मृदु' on December 11, 2012 at 7:05pm

 ''संग-संग घूमे जिन गलियों में/वे भी हैं गुमसुम-गुमसुम/प्रिये कहां तुम, प्रिये कहां तुम.....मैंने यह गीत कल ही लिखा है और अजब इत्‍तेफाक है ठीक वही संवेदना आपके मन में आई और आपने कलमबद्ध कर दिया ।  बहुत बधाई

Comment by arvindsamir on December 11, 2012 at 6:08pm

deep ji virah geet achcha hai.badhai swikar karein.samiir

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