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हमारी फिर से मुलाकात हो नहीं सकती...

तमाम उम्र भी ये बात हो नहीं सकती,
हमारी फिर से मुलाकात हो नहीं सकती।

हर एक ख्वाब की ताबीर मिल सके हमको,
कोई भी ऐसी करामात हो नहीं सकती।

गुरूब हो चुका मेरे नसीब का सूरज,
अब और नूर की बरसात हो नहीं सकती।

मैं रात हूँ मुझे सूरज मिले भला कैसे,
हो शम्स पास तो फिर रात हो नहीं सकती।

बजाय हमको मनाने के कह गये है वो,
के छोडो हमसे इल्तजात हो नहीं सकती।

कोई गुनाह बहुत ही कबीर है मेरा,
कबूल जिसकी मुनाजात हो नहीं सकती।

छुपा के रक्खूँ ये रिश्ता यूँ ही ज़माने से,
के हमसे इतनी एहतियात हो नहीं सकती।

हमारा दिल है के काबू में आ नहीं पाता,
तुम्हें भुलाने की शुरुआत हो नहीं सकती।

हयात पास है "इमरान" जब तलक तेरे,
ये खत्म तल्खी ए हालात हो नहीं सकती।

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Comment by इमरान खान on December 5, 2012 at 9:16am
लक्ष्मण प्रसाद जी आपका हार्दिक धन्यवाद
Comment by इमरान खान on December 5, 2012 at 9:11am
वीनस जी आपका हर पर्दा ए दिल से शुक्रिया
Comment by इमरान खान on December 5, 2012 at 9:09am
अजय साहब शेर दर शेर दाद के लिए शुक्रगुजार हूँ मैं आपका
Comment by इमरान खान on December 5, 2012 at 9:06am
चन्द्रेश कुमार जी बहुत शुक्रिया आपका
Comment by इमरान खान on December 5, 2012 at 9:05am
मुहतरमा राजेश कुमारी साहिबा आपकी नवाजिशों का पुर खुलूस शुक्रिया
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 4, 2012 at 9:55am

उम्दा गजल बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति बधाई इमरान खान भाई 
हमारा' दिल है' के' काबू में' आ नहीं पाता,                                                                                                                तुम्हें भुलाने' की' शुरुआत हो नहीं सकती। --  बहुत खूब 

Comment by वीनस केसरी on December 4, 2012 at 2:07am

वाह शानदार ग़ज़ल हुई है
हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by ajay sharma on December 3, 2012 at 10:48pm

तमाम उम्र ये' अब बात हो नहीं सकती,
हमारी' फिर से' मुलाकात हो नहीं सकती।    KYA SHER HAI JANAB ,,,,

हर एक ख्वाब की' ताबीर मिल सके हमको,
कोई भी' ऐसी' करामात हो नहीं सकती।    SACH KAH DIYA

छुपा के' रक्खूँ' ये' रिश्ता यूँ' ही ज़माने से,
के' हमसे' इतनी' एहतियात हो नहीं सकती।  BEST OF ALL 

हमारा' दिल है' के' काबू में' आ नहीं पाता,
तुम्हें भुलाने' की' शुरुआत हो नहीं सकती।    BAHUT KHOOB

हयात पास है' "इमरान" जब तलक तेरे,
ये' खत्म तल्खी' ए हालात हो नहीं सकती।   POORI GAZAL KA SAMPOORNA NIRVAH MUJHE YAHA DIKHA THANKS IMRAN SAAB 

 

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 3, 2012 at 7:52pm

बहुत खूब खान साहब, आपकी इस ग़ज़ल को पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा| इतनी सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 3, 2012 at 7:41pm

मैं' रात हूँ मुझे' सूरज मिले भला कैसे,
हो' शम्स पास तो' फिर रात हो नहीं सकती।

छुपा के' रक्खूँ' ये' रिश्ता यूँ' ही ज़माने से,
के' हमसे' इतनी' एहतियात हो नहीं सकती।---पूरी ग़ज़ल शानदार है एक एक शेर पर वाह निकलता है पर इन दो शेर को तो कई बार पढ़ गई मन नहीं भरा इनके लिए तो हजार बार वाह 

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