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ग़ज़ल - अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये

एक पुरानी ग़ज़ल....
शायद २००९ के अंत में या २०१० की शुरुआत में कही थी मगर ३ साल से मंज़रे आम पर आने से रह गयी...
इसको मित्रों से साझा न करने का कारण मैं खुद नहीं जान सका खैर ...
पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ............


अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये

शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये

जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये

जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये

जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये

इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये

किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये

जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये

(बाहर-ए-रजज मुसम्मन सालिम)

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on December 8, 2012 at 1:18am
Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 7, 2012 at 8:22pm

इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये

किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये

वाह !  बेहद सुन्दर गजल !!! बधाई स्वीकार करें वीनस भाई

Comment by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 1:47am

भाई Rajesh Kumar Jha साहिब

आपने मेरी ग़ज़ल को पढ़ कर दुष्यंत साहिब को याद फरमाया यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है

ह्रदय तल से आभार

Comment by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 1:45am

आपकी नवाजिश है नादिर खान साहिब
तहे दिल से शुक्रिया

Comment by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 1:45am

भाई पियुष द्विवेदी 'भारत' जी, हार्दिक आभार

दो अशआर को विशेष पसंद करने के लिए पुनः आभार

Comment by राजेश 'मृदु' on December 6, 2012 at 5:20pm

वीनस जी इस गजल पर इतना ही कह सकता हूं कि दुष्‍यंत जी बरबस याद आ गए

Comment by नादिर ख़ान on December 6, 2012 at 4:33pm

अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये

जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां 
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये .....

 

किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है 
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये ..

 क्या कहने वीनस भाई  सभी शेर एक से बढ़कर एक है  .........

सच कहें तो आपके कद के है 

 

 

 

 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on December 4, 2012 at 8:21am

लाजवाब वीनस भाई, पूरी गज़ल दमदार है, खासकर ये दो अशआर तो क़यामत ही ढा रहे हैं ! ढेरों दाद कबूलें !

जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये

किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये

 

 

Comment by वीनस केसरी on November 27, 2012 at 4:16am

विवेक भाई आपने तो मालामाल कर दिया
हा हा हा
धन्यवाद मित्रवर

Comment by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 2:48am

सच कहूँ तो मैं मतले की बुनावट पर ही हैरान हूँ. 'व्यापक बदलाव' को 'लोहे के फाटक' के साथ जोड़ना, वाह वीनस भाई, जवाब नही इस मतले का. और 'भयानक नतीजे' वाले शे'र में मिसरा-ए-उल और मिसरा-ए-सानी तो आपस में यूँ चिपके हैं, जैसे बरसों से इसी शे'र के इंतज़ार में बैठे हों. आम आदमी की भाषा में यदि ग़ज़ल कहना सीखना हों, तो यह ग़ज़ल सटीक उदाहरण है. इस सृजन पर बहुत-बहुत बधाई.

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