खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है
भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
छू रहा मानव सफलता के चमकते नव शिखर
प्रकृत नियमों को विकृत करता ये कैसा है सफर
है सभी कुछ पर अधूरी,
हर निशा हर भोर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
कितनी परतों में दबा है आज का ये आदमी
अब कहाँ किरदार सच्चे अनृत की है तह जमी
स्वार्थ आरी नेह बंधन,
कर रहीं कमज़ोर हैं
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का
उच्चाकांक्षा की चमक में,
तिमिर ही घनघोर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?
Comment
//है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का//
बहुत ही सुन्दर गीत, भावों से युक्त एक एक शब्द रचना की जान है, बहुत बहुत बधाई आदरणीया सीमा जी |
सीमा जी बहुत ही भावप्रधान गीत लिखा है अति सुन्दर
है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
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