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"जिंदगी से रूबरू हम"

अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम|

जज्बातों कि लाश को सीढियाँ बना मंजिल तो पा ली,
पर क्या अब  खुद  को  इन्सान  कह  सकते हैं  हम|

अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख लिया,
अपना  तो न  मिला, खुद को  भी खो बैठे  हम|

हर एक रिश्ता बंध गया है, स्वार्थ की जंजीरों से,
न  जाने  कैसे  दलदल में  फंस  गये  हम|

ऐ खुदा ! तुझसे क्या शिकायत करें तेरी कुदरत को लेकर,
आज  अपनी  करतूतों  से तुझे भी शर्मिंदा  कर गये हम|

सुबह को उठकर शराब से जो मुंह धोते हैं रोजाना,
रात को कितनी पी, किससे हिसाब मांग रहे हम|

ये मत सोचना दोस्तों, सदा अफ़सोस करते हैं हालात पर,
अक्सर अपने आसुओं को मुस्कराहटों में बदला करते हैं हम

अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम |

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Comment by Harish Bhatt on July 2, 2012 at 1:18pm

सवी जी नमस्‍ते, सच्‍चाई बयां करती कविता के लिए हार्दिक बधाई

बहुत अच्‍छा लिखा है आपने

अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम

 

Comment by Rekha Joshi on July 2, 2012 at 1:06pm
ये मत सोचना दोस्तों, सदा अफ़सोस करते हैं हालात पर,
अक्सर अपने आसुओं को मुस्कराहटों में बदला करते हैं हम
सवी जी मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ,''तुम इतना जो मुस्करा रहे हो क्या गम है जो छुपा रहे हो ,सुंदर अभिव्यक्ति 

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 2, 2012 at 11:58am

//अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख लिया,
अपना  तो न  मिला, खुद को  भी खो बैठे  हम|//

वाह वाह वाह सावी जी, क्या दर्द उभर कर सामने आया है इन पंक्तियों से. बहुत खूब, बधाई स्वीकार करें.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on July 1, 2012 at 10:59pm

हर एक रिश्ता बंध गया है, स्वार्थ की जंजीरों से,
न  जाने  कैसे  दलदल में  फंस  गये  हम|

आदरणीया सवी जी  चिंता जनक हालत हैं सब बदला जा रहा है ...काश अपने गिरेबान में देख  सुधरें सब ...बहुत सुन्दर  रचना ..जय श्री राधे 

भ्रमर ५ 

 

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