आग उगलते सूरज का रथ
दौड़ रहा था
अनवरत, अन्तरिक्ष पर
पीछे जन्म लेते
धूल के गुबार ने ढक
दिए सब वारि के सोते
कुम्भला गए दम घोंटू
गर्द में कोमल पौधों के पर
चिपक गए परिधान बदन से
हाँफते हुए ,पसीनों से लथपथ
उसके अश्वों के स्वेद सितारे
छितरा गए सागर की चुनरी पर
मिल गए खारे सागर की बूंदों से
जबरदस्त उबाल उठा
सागर के अंतर में
प्यासी धरा की आहें
कर बैठी आह्वान
मंथन से मुक्त होकर
उड़ चला वो वाष्पित आँचल
सुदूर गगन में
मेघ श्रंखला को ढकने
खोल दिए पट अभ्र्पारों ने
चुका दिया धरा का ऋण
खुल के बरसे मूसलाधार |
Comment
राजेश कुमारी जी,
विधाएं सभी अच्छी हैं ...मैंने तो महज़ अपनी पसन्द की बात की थी.......
अब मुझे चना मसाला सब्ज़ी पसन्द नहीं, इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं चना मसाला को ख़राब कह रहा हूँ .........बस मैं नहीं खाता ...हा हा हा
आप चाहे जिस विधा में सृजन करें........आप मर्ज़ी की मालिक हैं जी.........और कहना मत किसी से महिलायें मालिक ही होती हैं...हा हा हा
अलबेला खत्री जी बहुत-बहुत हार्दिक आभार आपका चलो अतुकांत कविता में आपको यह कविता अच्छी लगी एक बात बताऊँ आप मेरा ब्लॉग खोलकर देखें तो एक डेड साल पहले आपको मेरी एक भी अतुकांत कविता नहीं मिलेगी पहले मुझे भी अजीब लगती थी पर अब अच्छी भी लगती हैं और लिखने में मजा भी आने लगा है मैं हर एक विधा में लिखना चाहती हूँ |ये बात तो सही है जो बात तुकांत कविता में है वो कही नहीं
आदरणीय राजेश कुमारी जी,
बहुत बहुत अभिवादन
___अतुकान्त कवितायें मुझे कम ही पसन्द आती हैं . या यों भी कह सकता हूँ कि इनमे मेरी रुचि ज़रा कम ही होती है . फिर भी आज तक जितनी ऐसी कवितायेँ मुझे अच्छी लगी हैं ....आपकी यह कविता उनमे बहुत ऊपर विराजती है .
उसके अश्वों के स्वेद सितारे
छितरा गए सागर की चुनरी पर
मिल गए खारे सागर की बूंदों से
जबरदस्त उबाल उठा
__एक अनूठे विषय पर इतने शानदार प्रवाह के साथ सुन्दर शब्दावली से सजा कर आपने अनुपम रचना प्रस्तुत की है . मेरा हार्दिक अभिनन्दन स्वीकार करें
कुमार गौरव जी हार्दिक आभार
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