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निर्मल मन मैला बदन , नन्हे नन्हे हाथ 
रोटी का कैसे जतन,समझ ना पाए बात (1) 

तरसे एक -एक कौर को ,भूखे कई हजार 
गोदामों में सड़ रहे, गेहूं के आबार (2) 

शून्य में देखते नयन , पूछ रहे है बात 
प्रजा तंत्र के नाम पर,क्यूँ करते हो घात (3) 

सीना क्यूँ फटता नहीं, भूखे को बिसराय 
हलधर का अपमान कर,धान्य, जल में बहाय (4) 

शासन की सौगात हो, या किस्मत की हार 
निर्धन को तो झेलनी, ये जीवन की मार (5) 

रंक का चूल्हा न जले, ना लकड़ी ना तेल 
मंत्रियों तक दौड रही ,सिलेंडरों की रेल (6) 

दिन हैं भ्रष्टाचार के,सत्य रहा है काँप 
मंहगाई की बीन   पे, नाच रहे हैं साँप  (7) 

बिगड़ी सूरत देश की ,किस के जल से धोय 
गंगा भी मैली करी,  बचा उपाय न कोय (8)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 26, 2012 at 10:42pm

उमा शंकर मिश्र जी बहुत बहुत हार्दिक आभार 

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 26, 2012 at 10:13pm

बहुत बढ़िया कटाक्ष -सच्चाई लिए हुवे है

ताज़ा घटना को भी  बखूबी से चित्रित किया गया है 

आम जन के मन में इस खोखली दोमुंही  व्यवस्था के विरुद्ध जो विद्रोह है -

यह आपके दोहों में  झलक रहे हैं 

बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 25, 2012 at 9:04pm

अविनाश बागडे जी बहुत- बहुत शुक्रिया 

Comment by AVINASH S BAGDE on June 25, 2012 at 8:56pm


शासन की सौगात हो, या किस्मत की हार 

निर्धन को तो झेलनी, ये जीवन की मार (5) 

बिगड़ी सूरत देश की ,किस के जल से धोय 
गंगा भी मैली करी,  बचा उपाय न कोय (8)

nice dohe Rajesh kumari mam...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 25, 2012 at 12:38pm

अलबेला खत्री जी इतना सुन्दर विश्लेषण हेतु हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 25, 2012 at 12:37pm

अरुण श्री वास्तव जी हार्दिक आभार आपका और दिली शुक्रिया त्रुटी निवारण कराने के लिए 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 25, 2012 at 12:35pm

जगदानंद झा जी हार्दिक आभार आपका 

Comment by Albela Khatri on June 25, 2012 at 12:24pm

साधु साधु !
क्या कहने.........
वाह !


शासन की सौगात हो, या किस्मत की हार
निर्धन को तो झेलनी, ये जीवन की मार (5)

रंक का चूल्हा न जले, ना लकड़ी ना तेल
मंत्रियों तक दौड रही ,सिलेंडरों की रेल (6)

दिन हैं भ्रष्टाचार के,सत्य रहा है काँप
मंहगाई की धुन पे, नाच रहे हैं साँप  (7)

बिगड़ी सूरत देश की ,किस के जल से धोय
गंगा भी मैली करी, उपाय बचा न कोय (8)

___बहुत खूब  दोहावली
___बहुत खूब कटाक्ष
___________अभिनन्दन आपका राजेश  कुमारी जी !

Comment by Arun Sri on June 25, 2012 at 11:43am

तरसे एक -एक कौर को ,भूखे कई हजार
गोदामों में सड़ रहे, गेहूं के आबार

एक समसामयिक विषय पर कलम चली आपकी और क्या खूब चली ! वाह !
(क्षमा सहित निवेदन है कि मात्राएँ एक बार फिर से गिन लें )


Comment by जगदानन्द झा 'मनु' on June 25, 2012 at 11:43am

 सुन्दर  रचना के लिए आपको बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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