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        ज्वालाशर छंद

१६ ,१५ पर यति अंत में दो गुरू (२२)

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संकीर्णताओं से बचाती, निष्काम कर्म भावना ही.

हो जायें प्रवृत्त मनुज सभी, अधार हो सदभावना ही.

कर्तव्य का बस बोध होवे,इच्छा न कुछ पाने की हो,

संकल्पना कहती सदा ये,आशा सुधर जाने की हो.

 कोई मार्ग खोजें मुक्ति का,आशय जीवन का यही है.

सद्कर्म से सम्भव बने यह,विचार दर्शन का सही है.

कल्याण का है भाव जिसमे,मोक्ष पथ पर वह बढ़ेगा.

सद्कर्म पर जो चल रहे नर,हर कोई गाथा पढ़ेगा.

ना हो अहित मम कर्म से कुइ,परहित हो कुर्बां जवानी.

हमें वास्ता क्या कर्मफल से,सद्कर्म में आये रवानी

शैलेन्द्र कुमार सिंह "मृदु"

 

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Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 24, 2012 at 5:15pm

आदरणीया महिमा जी प्रोत्साहन हेतु कोटि कोटि धन्यवाद

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 24, 2012 at 5:15pm

आदरणीय विन्ध्येश्वरी सर सादर नमन, पहले तो प्रोत्साहन हेतु आभार, इस छंद का वर्णन श्री चंद्रशेखर सिंह  "चन्द्र" जी की पुस्तक "छंद मंजूषा' में किया गया है, जिसका छायाचित्र संलग्न कर रहा हूँ

सादर

Comment by MAHIMA SHREE on April 24, 2012 at 5:02pm
सद्कर्म पर जो चल रहे नर,हर कोई गाथा पढ़ेगा.
ना हो अहित मम कर्म से कुइ,परहित हो कुर्बां जवानी......

प्रिय मृदु जी , नमस्कार ..
बहुत ही उच्च कोटि के विचारो का प्रसार करती आपकी इस रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 24, 2012 at 5:02pm
आदरणीय मृदु जी! निष्काम कर्म कविता लाजवाब है।हार्दिक बधाई।
आपसे एक निवेदन है कि उक्त छन्द के बारे में यदि विस्तृत जानकारी साझा करें तो बड़ी कृपा होगी।
सादर।

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