गोरी के आंचल में
झिलमिल सितारे हैं
चंदा को सूरज भी
छिप के निहारे है
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रेत के समंदर में
बूँद एक उतरी तो
ललचाई नजरों ने
सोख लिया प्यारी को
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उदय अंत में त्रिशंकु -
बन ! मै लटकता हूँ
राहु -केतु से कटे भी
दंभ लिए फिरता हूँ
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चार दिन की जिन्दगी है
चार पल की यारी है
चाँद भी खिसक गया
रात अंधियारी हैं
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कल अंडा था
बच्चा बनकर
चीं चीं चूं चूं बोला
खेला खाया
उड़ा साथ कुछ
मै रह गया अकेला
Comment
आदरणीय भ्रमर सर
नमस्कार , सर क्या बात है , बिलकुल अलग अंदाज में ..
बहुत अच्छी और हट के प्रस्तुति..
गोरी के आंचल में
झिलमिल सितारे हैं
चंदा को सूरज भी
छिप के निहारे है
यह हुई न भ्रमर वाली बात ............. खुबसूरत ....... दाद कुबूल फरमाएं
बहुत सुन्दर रचना है भ्रमर जी, सुन्दर भाव के साथ, बधाई...
शानदार भ्रमर जी, सभी लघु कवितायेँ सुन्दर बन पड़ी हैं , बधाई स्वीकारें |
बहुत सुन्दर रचना है भ्रमर जी, सुन्दर भाव के साथ, बधाई...
चंदा को सूरज भी
छिप के निहारे है
आदरणीय भ्रमर सर बहुत ही सुन्दर रचना बधाई स्वीकार करें
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