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एक तवायफ की दास्तान

कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है--ये जवानी मेरी तस्वीर नज़र आती है !!


                    
                                                         हमने सोचा न था हालात कुछ ऐसे होंगे !
                                                        हम जिन्हें अपना समझते थे पराये होंगे !!
                                                         अपनी  दुनिया में अँधेरे ही अँधेरे होंगे !
                                                       रहके महफ़िल में भी हम इतने अकेले होंगे !!

 


हर तरफ रंज की तदबीर नज़र आती है ---कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!


                      
                                                       चन्द लम्हों के लिए लाश को जिंदा करके !
                                                      अपनी दौलत से मेरे जिस्म का सौदा करके!! 
                                                        मेरी इज्ज़त का सरे आम तमाशा करके !
                                                    क्या मिला तुमको भरी बज़्म में रुसवा करके !!

 


अपनी पायल मुझे ज़ंजीर नज़र आती है----कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!




                                                यूँ न घुट घुट के जिया करती न उलझन होती !
                                                      मेरा अरमान था के मै भी  सुहागन होती !!
                                                        मेरे चेहरे पे पड़ी शर्म की चिलमन होती !
                                                       कोई जो अक्स मेरा होता मै दरपन होती !!

 

आज ख्वाबों की न ताबीर नज़र आती है -- कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!

 

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Comment

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Comment by Er. Ambarish Srivastava on November 1, 2011 at 10:47pm

भाई हिलाल अहमद हिलाल जी ! इस खूबसूरत नज़्म के जरिये आपने इक तवायफ की सारी जिन्दगी एक चलचित्र की तरह पेश कर दी है ! इस के लिए आपको दिली मुबारकबाद !

Comment by Hilal Badayuni on November 1, 2011 at 3:00pm

shukriya satsh sahab aur rohit ji..............

Comment by Rohit Sharma on November 1, 2011 at 9:59am
Achchhi rachna hai, badhai
Comment by satish mapatpuri on November 1, 2011 at 2:28am

चन्द लम्हों के लिए लाश को जिंदा करके !

                                                      अपनी दौलत से मेरे जिस्म का सौदा करके!!
                                                        मेरी इज्ज़त का सरे आम तमाशा करके !
                                                    क्या मिला तुमको भरी बज़्म में रुसवा करके !!

सुभान अल्लाह .................. बहुत खूब

Comment by Hilal Badayuni on October 31, 2011 at 4:17pm

shukriya bhai arun ji 

mujhe lag raha hai ek aap hi ki sakriyata chal rahi hai obo me....baqi dost kaha gaye mere

Comment by Abhinav Arun on October 31, 2011 at 12:51pm

Hilaal ji ek shaandaar rachn ke liye hardik mubaraqwaad aapko . bahut saral sahaj alfaaz men tawayaf ki dastaan bayan kar di aapne waah !!

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