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लाश तेरी यादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज दफ़्न करता हूँ रोज खोद लाता हूँ

जो रकीब था कबसे बन गया खुदा मेरा
रोज सर कटाता हूँ रोज सर झुकाता हूँ

बिन तुम्हारे भी जानम है हसीन ये दुनिया
रोज याद करता हूँ रोज भूल जाता हूँ

दर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
रोज मैं कमाता हूँ रोज ही उड़ाता हूँ

 

है यही सजा तेरी, ताज* एक बालू का,

रोज मैं बनाता हूँ, रोज ही मिटाता हूँ

 

*ताजमहल

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 26, 2011 at 9:50pm

धर्मेन्द्र भाई हम फिर भी इन्तजार करेंगे....:-))))))))))))

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 26, 2011 at 9:49pm

आदरणीय बागी जी, बहुत कोशिश की पर आखिरी शे’र आया ही नहीं जेहन में। अब लगता है दो चार महीने बाद ही आएगा।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 26, 2011 at 9:26pm

जो रकीब था कबसे बन गया खुदा मेरा
रोज सर कटाता हूँ रोज सर झुकाता हूँ,

 

धर्मेन्द्र भाई सभी शे'र बहुत ही उम्द्दा है, खुबसूरत ग़ज़ल पर दाद कुबूल कीजिये, एक और शे'र का डिमांड है भाई कमसे कम पांच तो कर ही दीजिये |

कृपया ध्यान दे...

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