2122 - 1122 - 1122 - 112/(22)
दिल धड़कने की सदा ऐसी भी गुमसुम तो न थी
इतनी बे-परवा मेरी जान कभी तुम तो न थी
हम तड़पते ही रहे तुम को न अहसास हुआ
अपनी उल्फ़त की कशिश इतनी सनम कम तो न थी
सब ने देखा मेरी आँखों से बरसता सावन
थी वो बरसात बड़े ज़ोरो की रिम-झिम तो न थी
तुम जिसे ज़ीनत-ए-गुल समझे थे अरमान मेरे
गुल पे क़तरे थे मेरे अश्कों के शबनम तो न थी
क्यूँ न आहों ने मेरी आ के तेरे दिल को छुआ
तेरी उल्फ़त किसी चाहत में कहीं गुम तो न थी
तुम ने अपनी ही वफ़ाओं का सिला क्यूँ चाहा
रग़्बत-ए-इश्क़ सनम मेरी भी कुछ कम तो न थी
बे-वफ़ा शाद रहे छोड़ के तू जा मुझको
ज़िन्दगी यूँ भी तेरे साथ मुनज़्ज़म तो न थी
"मौलिक व अप्रकाशित"
ज़ीनत-ए-गुल - फूल की शोभा या श्रंगार
रग़्बत-ए-इश्क़ - प्रेम के प्रति अनुराग
मुनज़्ज़म - संगठित, सुनियोजित, क्रियागत
Comment
//हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब्अ' ख़ुद-आरा नहीं होती//
इस नज़्म में मतला नहीं है, आपकी में है,ये नज़्म ही है ।
//नज़्म नं० 2.
देस के अदबार की बातें करें
अजनबी सरकार की बातें करें//
इस पर ग़ौर करें, इसमें एक रदीफ़ में क़ाफ़िया बदल कर 3-3 अशआर कहे गए हैं, ये भी आपकी वाली जैसी नहीं ।
//नज़्म नं० 3.
अब उन रंगीन रुख़्सारों में थोड़ी ज़र्दियाँ भर दे
हिजाब-आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियाँ भर दे//
इस नज़्म की शुरुआत यहाँ से होती है:-
'मुसव्विर मैं तेरा शनकार वापस करने आया हूँ'
ये मिसरा आपने ग़ाइब कर दिया, ये भी आपकी नज़्म जैसी नहीं है ।
आप अगर इससे ख़ुश हैं कि ये नज़्म है तो ख़ुश होते रहें, मैं इसे नज़्म तस्लीम नहीं कर सकता ।
चर्चा यहीं ख़त्म करता हूँ , अब इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं दूँगा ।
//साहिर की नज़्म ज़रूर पेश करें।//
जी बहतर है, मुलाहज़ा फ़रमाएँ-
नज़्म नं० 1.
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब्अ' ख़ुद-आरा नहीं होती
मामूरा-ए-एहसास में है हश्र सा बरपा
इंसान की तज़लील गवारा नहीं होती
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती
बेगाना-सिफ़त जादा-ए-मंज़िल से गुज़र जा
हर चीज़ सज़ा-वार-ए-नज़ारा नहीं होती
फ़ितरत की मशिय्यत भी बड़ी चीज़ है लेकिन
फ़ितरत कभी बेबस का सहारा नहीं होती
इस नज़्म के पहले और दूसरे शे'र में क़वाफ़ी 'आरा' उसके बाद तीसरे शे'र में क़ाफ़िया 'इया' और फिर से चौथे व पाँचवे शे'र में 'आरा' लिये गये हैं।
नज़्म नं० 2.
देस के अदबार की बातें करें
अजनबी सरकार की बातें करें
अगली दुनिया के फ़साने छोड़ कर
उस जहन्नम-ज़ार की बातें करें
हो चुके औसाफ़ पर्दे के बयाँ
शाहिद-ए-बाज़ार की बातें करें
दहर के हालात की बातें करें
इस मुसलसल रात की बातें करें
मन्न-ओ-सल्वा का ज़माना जा चुका
भूक और आफ़ात की बातें करें
आओ परखें दीन के औहाम को
इल्म-ए-मौजूदात की बातें करें
जाबिर-ओ-मजबूर की बातें करें
उस कुहन दस्तूर की बातें करें
ताज-ए-शाही के क़सीदे हो चुके
फ़ाक़ा-कश जम्हूर की बातें करें
गिरने वाले क़स्र की तौसीफ़ क्या
तेशा-ए-मज़दूर की बातें करें
इस नज़्म के मतले व शे'र नं - 2 व 3 में क़वाफ़ी 'आर' शे'र नं 3 ता 6 में 'आत' तथा शे'र नं 7 ता 9 में 'ऊर' लिए गये हैं।
नज़्म नं० 3.
अब उन रंगीन रुख़्सारों में थोड़ी ज़र्दियाँ भर दे
हिजाब-आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियाँ भर दे
लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़्महिल कर दे
नुमायाँ रंग-ए-पेशानी पे अक्स-ए-सोज़-ए-दिल कर दे
तबस्सुम-आफ़रीं चेहरे में कुछ संजीदा-पन भर दे
जवाँ सीने की मख़रूती उठानें सर-निगूँ कर दे
घने बालों को कम कर दे मगर रख़शंदगी दे दे
नज़र से तमकनत ले कर मज़ाक़-ए-आजिज़ी दे दे
मगर हाँ बेंच के बदले उसे सोफ़े पे बिठला दे
यहाँ मेरे बजाए इक चमकती कार दिखला दे
इस नज़्म के मतले में क़वाफ़ी 'इयाँ' तथा रदीफ़ 'भर दे' है, दूसरे शे'र में क़वाफ़ी 'इल' तथा रदीफ़ 'कर दे,' तीसरे शे'र में क़वाफ़ी 'अर' तथा रदीफ़ 'दे', चौथे शे'र में क़वाफ़ी 'ई' तथा रदीफ़ 'दे दे' और पाँचवे शे'र में क़वाफ़ी 'ला' तथा रदीफ़ 'दे' है।
जबकि मेरी नज़्म की रदीफ़ कहीं भी नहीं बदली है। सादर।
/अगर आप 'साहिर लुधियानवी' को प्रमाणिक शाइर मानते हों तो मैं उन की नज़्मों की मिसाल पेश कर सकता हूँ//
साहिर की नज़्म ज़रूर पेश करें ।
//नज़्म का विधान नहीं चाहिए, आपने जैसी नज़्म कही है,ऐसी किसी मुस्तनद शाइर की नज़्म मिसाल में पेश कर सकते हैं तो कर दें।//
मुहतरम, नज़्म का विधान आपको नहीं, मुझको और मुझ जैसे सीखने वालों को चाहिए जो ओ बी ओ पर सीखने के लिए आये हैं।
विधान के अनुसार नज़्म ठीक पाई गई, मेरे लिए इतना ही बहुत है।
अगर आप 'साहिर लुधियानवी' को प्रमाणिक शाइर मानते हों तो मैं उन की नज़्मों की मिसाल पेश कर सकता हूँ। सादर।
नज़्म का विधान नहीं चाहिए, आपने जैसी नज़्म कही है,ऐसी किसी मुस्तनद शाइर की नज़्म मिसाल में पेश कर सकते हैं तो कर दें ।
//मैंने तो ऐसी नज़्म आज तक नहीं देखी,अगर आपने देखी हो तो मुझे भी बताएँ ?//
मुहतरम समर सर, बेशुमार आज़ाद नज़्में हैं जिन के मतले के क़वाफ़ी बाद के अशआर में नहीं पाये जाते हैं। 'रेख़्ता' से नज़्म के बारे में मिली जानकारी यहाँ शेयर कर रहा हूँ-
नज़्म क्या होती है?
नज़्म का लुग़वी मआनी ‘पिरोने’ का है. जैसे अक्सर हम यह कहते भी हैं कि फ़लाँ ने फ़लाँ शे’र में फ़लाँ लफ़्ज़ जो नज़्म किया है वह ज़बान के लिहाज़ से दुरुस्त नहीं है.
नज़्म (पाबन्द) की तवारीख़ देखें तो मेरे ख़याल से इसकी उम्र ग़ज़ल की उम्र के लगभग बराबर ही होगी। नज़्में बेश्तर तीन क़िस्म की होती हैं:
पाबन्द नज़्म
आज़ाद नज़्म
नस्री नज़्म
पाबन्द नज़्म क्या है?
पाबन्द नज़्म उस नज़्म को कहते हैं जिसमें हू-ब-हू ग़ज़ल ही की तरह बह्र समेत क़ाफ़िए, रदीफ़ (ग़ज़ल की तरह यहाँ भी रदीफ़ होना ज़रूरी नहीं होता, रदीफ़ ग़ज़ल या नज़्म में हुस्न- ए- इज़ाफ़ी का काम करता है या’नी उसकी ख़ूबसूरती बढ़ता है) आदि की भी पाबन्दी होती है। पाबन्द नज़्में कई तरह की होती हैं:
दो मिसरे की नज़्म जिसे ‘बैत‘ या ‘क़तअ बन्द‘ कहते हैं, तीन मिसरे की जिसे ‘सुलासी‘ कहते हैं, पंजाबी में ‘माहिया‘ भी एक क़िस्म है जो तीन मिसरे में लिखी जाती है और गुलज़ार की ईजाद त्रिवेणी भी तीन मिसरे की नज़्म होती है (हालाँकि तीन मिसरे की नज़्में उतनी राइज नहीं हो पाईं क्यूँ कि उर्दू में दो मिसरे में बात कहने के लिए पहले से ही शे’र की शक्ल में एक सिन्फ़ मौजूद थी. ऐसे में कोई बात तीन मिसरे में कहना कम ही शाइरों को रास आया.) चार मिसरे की नज़्म जैसे ‘रुबाई’, ‘मस्नवी’, ‘क़सीदा’ वग़ैरह, पाँच मिसरों की नज़्म जिसे ‘मुख़म्मस‘ कहते हैं, छह मिसरों की नज़्म जिसे ‘मुसद्दस‘ कहते हैं जैसे- ‘मर्सिया’ वग़ैरह.
आज़ाद नज़्म
वह नज़्म जिसमें बह्र के इलावा कोई और पाबन्दी (रदीफ़, क़ाफ़िए की भी) नहीं होती. सन 1944 के आस- पास मख़्दूम मोहिन्द्दीन के इलावा किसी भी तरक़्क़ी- पसन्द नज़्म निगार (साहिर, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री किसी ने भी) ने आज़ाद शाएरी शुरूअ नहीं की थी। (पर कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि आज़ाद नज़्म 1928- 1931 के आस- पास कही जा चुकी थी लेकिन उतनी राइज नहीं हुई थी) उसके बाद धीरे- धीरे आज़ाद नज़्म कहने का सिलसिला शुरूअ हुआ.जैसा कि बताया गया कि आज़ाद नज़्म में रदीफ़, क़ाफ़िए की कोई पाबन्दी नहीं होती बावजूद इसके अगर कहीं कोई क़ाफ़िया मिल जाए तो उसे ऐब की नज़र से नहीं बल्कि हुस्न- ए- इज़ाफ़ी की नज़र से देखते हैं। आज़ाद नज़्म में तय की गयी बह्र के अर्कान में कम- ओ- बेशी की जा सकती है (जैसे किसी मिसरे में हम 3 अर्कान लेते हैं किसी में 5 किसी में 2 किसी में 1 लेकिन अगर सारे के सारे मिसरे बराबर अर्कान में हैं तब भी इसे कोई ऐब नहीं माना जाएगा). अर्कान को तोड़ने का सिलसिला इसके बाद शुरूअ हुआ।
नस्री नज़्म
वह नज़्म जिसमें किसी तरह की कोई भी पाबन्दी नहीं होती न बह्र की और न ही रदीफ़ क़ाफ़िए की आप किसी भी मौज़ूअ पर मिसरा दर मिसरा यह नज़्म कह सकते हैं. यह सिन्फ़ उर्दू अदब में बहुत नयी है लिहाज़ा आसेतेज़ा (उस्ताद) के यहाँ इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती.
नोट
कोई भी नज़्म हो वह एक ही मौज़ूअ (टॉपिक) पर लिखी जाती है।
पाबन्द नज़्म की किसी भी सिन्फ़ (विधा) में अशआर की ता’दाद की कोई पाबन्दी नहीं होती।
नज़्म का अपना एक उन्वान (टाइटल) भी होता है।
ग़ज़ल के इलावा उर्दू अदब में जो भी जितनी भी पद्य की विधाएँ हैं वह सब नज़्म के दाएरे में आती हैं। सादर।
//मैंने इसे ग़ज़ल नहीं नज़्म बताया है।
ग़ज़ल के पैटर्न पर कही गई नज़्म है ये//
मैंने तो ऐसी नज़्म आज तक नहीं देखी,अगर आपने देखी हो तो मुझे भी बताएँ ?
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, रचना पर आपकी उपस्थिति के लिए आपका शुक्रिया। मैंने इसे ग़ज़ल नहीं नज़्म बताया है।
ग़ज़ल के पैटर्न पर कही गई नज़्म है ये। सादर।
जनाब अमीरुद्दीन जी आदाब, ग़ज़ल के मतले में 'उम' के क़वाफ़ी लिए गये हैं और आगे के अशआर में क़वाफ़ी दुसरे आ गए हैं, देखिएगा I
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, रचना पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार।
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