122 - 122 - 122 - 122
वो गर हमसे नज़रें मिलाने लगेंगे
रक़ीबों पे बिजली गिराने लगेंगे
ये लकड़ी है गीली उठेगा धुआँ ही
सुलगने में इसको ज़माने लगेंगे
करोगे जो बातें बिना पैर-सर की
कई इनमें फिर शाख़साने लगेंगे
उमीदों को जिसने न मरने दिया हो
हदफ़ पर उसी के निशाने लगेंगे
तेरी शाइरी से परेशाँ हैं जो-जो
तेरी नज़्में ख़ुद गुनगुनाने लगेंगे
ये जो बात तुमने कही है बजा है
सदाक़त में लेकिन ज़माने लगेंगे
महब्बत की ऐसी हवा चल पड़ी है
कि पंछी अभी चहचहाने लगेंगे
कोई उन के आने की दे गर निशानी
तो हम अपने घर को सजाने लगेंगे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
शुक्रिया मुहतरम।
'जो तुमने कहा कैसे होगा ये साबित
सदाक़त में इस की ज़माने लगेंगे'
ये ठीक है ।
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी तशरीफ़ आवरी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
'ये जो बात तुमने'... पर आपसे सहमत हूँ। ज़रा इस पर नज़र् ए सानी फ़रमाएं -
जो तुमने कहा कैसे होगा ये साबित
सदाक़त में इस की ज़माने लगेंगे
जनाब अमीरुद्दीन जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्चा है, बधाई स्वीकार करें I
'ये जो बात तुमने कही है बजा है
सदाक़त में लेकिन ज़माने लगेंगे'--इस शे`र के दोनों मिसरों में मुझे रब्त महसूस नहीं हुआ I
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