अंधा, बहरा कभी गूंगा बनता
रिश्तों की जिसको परवाह हो
मान-अपमान का भोग भी करता
चिंतित रहता, परिवार पर उसके कलंक न हो।।
सोच-समझकर सही फैसले लेता
ताकि घर में कलह न हो
उत्तरदायित्व भी लेता हरदम
फैसलों में उसके कभी दो राय न हो।।
शान-शौकत सब भूलता अपनी
पद-प्रतिष्ठा का भी अभिमान न हो
सबकी खुशी में उसकी खुशी है
चाहे किए त्याग का नाम न हो।।
होती जिम्मेदारियां बड़ी है उसकी
जग में चाहे पहचान न हो
काम तो उसको करना पड़ता
चाहे शरीर में जान न हो।।
थकान, पीड़ा क्या रोकेगी उसको
जब, कमानेवाला कोई और न हो
परिवार की खुशियां प्रथम लक्ष्य
चाहे मंजिल का उसे कोई ज्ञान न हो।।
कभी गिरता कभी संभलता
उसमें, अदम्य साहस की कमी न हो
काटों भरा है उसका जीवन
पर, अनुभव की उसमें कमी न हो।।
स्वरचित व मौलिक
फूल सिंह, दिल्ली
Comment
आ. भाई फूलसिंह जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
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