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पुराने ख़त मेरे अब भी जो सामने होंगे,
तो पढ़के होंठ यकीनन ही कांपते होंगे।
सफर उदास रहा जिनकी आस में अपना,
किसी के साथ वो चुपचाप चल पड़े होंगे।
तुम्हारे होठों को छूकर करार पाएंगे,
इसी ख्याल से मिसरे बहक रहे होंगे।
बिछड़ के उनसे मैं कितना उदास रहता हूँ,
मैं सोचता हूँ वो अक्सर ये सोचते होंगे।
मैं अपने बच्चों को ख़्वाबों में देखता हूँ यहाँ,
वह सोके उठते ही मुझको पुकारते होंगे।
तुम्हें जो फूल किताबों में देके आया था,
कई बरस से वो तुमने नहीं छुए होंगे।
निकलके भीड़ से मिल पाते एक रोज कहीं,
पर अब भी ख़ौफ है सब लोग देखते होंगे।
मुझे सताती है वो अनछुए बदन की महक,
तुझे भी जल चुके वो ख़त कचोटते होंगे।
मुझे ग़ज़ल का सलीका नहीं मिला यारों,
कुछ एक शेर तो फिर भी सही कहे होंगे।
ज्यों रोते रोते ही सो जाता है कोई बच्चा,
यूँ तुझमें प्यार के अहसास सो गए होंगे।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत ही खूब ग़ज़ल कही भी मनोज जी...बधाई
जनाब मनोज 'अह्सास' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
जनाब 'जान' गोरखपुरी साहिब की इस्लाह पर ग़ौर कीजियेगा,
सफर उदास रहा जिनकी आस में अपना,
किसी के साथ वो चुपचाप चल पड़े होंगे। इस शे'र के मिसरों में रब्त नहीं है, इसे यूंँ कह सकते हैं -
"मुझे न घर पे मेरे पा के ग़मज़दा होकर
किसी के साथ वो चुपचाप चल पड़े होंगे" सादर।
वाह बहुत खूब।, अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई।
बहुत बहुत आभार आदरणीय जान गोरखपुरी साहब
बहुत ख़ूब, मनोज अहसास जी,ये ग़ज़ल निश्चत रूप से सुखद अहसास दे रही है बहुत बहुत बधाई।
कुछ मिसरों को और स्पष्टता की दरकार है।जैसे
//पुराने ख़त मेरे अब भी जो सामने होंगे,
तो पढ़के होंठ यकीनन ही कांपते होंगे।// ऐसे कहे तो अधिक स्पष्टता होगी
पुराने खत जो कभी आते सामने होंगे
तो पढ़के होंठ यकीनन ही कांपते होंगे।
पांचवे शेर में वह को वे कर लें।
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