2122 1122 2(11)2
ये अलग बात है इनकार मुझे
तेरे साये से भी है प्यार मुझे।
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सामने सबके बयाँ करता नहीं
रोज दिल कहता है, सौ बार मुझे।
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लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं बिक जाऊं अगर
तू खरीदे सरे बाजार मुझे।
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था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह
भूल अब जाता है इतवार मुझे।
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चाहकर मैं तुझे, मुजरिम हूँ तेरा
क्यूँ नहीं करता गिरफ़्तार मुझे
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ग़म तेरे आप ही, हो जाते फ़ना..
तू बना लेेता जो, गमख़्वार मुझे
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ये न सोचा था कभी भी मैंने
तू ख़बर देगा बन अख़बार मुझे।
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देखकर 'जान' तुझे जीता हूँ
है नफ़स जैसी तू दरकार मुझे।
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मौलिक व अप्रकाशित
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Comment
'ये अलग बात कि इनकार मुझे'
इस से बहतर तो पहले वाला मिसरा था ।
'रोज़ दिल करता है इज़हार मुझे'
इस मिसरे पर मैंने आपको बहुत समझाया पर आपकी समझ में नहीं आया, बहना राजेश कुमारी ने एक बार कहा ,आपने मान लिया, जादू है बहना की बात में:-)))
'देख के तुझको ही जीते हैं हम
है नफ़स जैसी तू, दरकार मुझे'
इस शैर में शुतर गुरबा दोष है,बहना को मिसरा सुझाते हुए ध्यान नहीं रहा शायद ।
'ग़म मेरे आप हीं, हो जाते फ़ना..
तू बना लेेता जो, गमख़्वार मुझे'
इस शैर पर फिर से लिखना पड़ रहा है,ऊला में 'मेरे' की जगह 'तेरे' चाहिए क्योंकि 'ग़म ख़्वार' का अर्थ है, ग़म बाँटने वाला,थोड़ा ग़ौर करें ।
आपने इस ग़ज़ल पर बहुत मिहनत करवाई मुझसे:-)))
आदरणीया राजेश कुमारी जी आपके मुक्तकंठ से दाद पाकर हृदय संतुष्ट हुआ कि किसी हद तक गजल का प्रयास सफल हुआ है,बहुत बहुत आभार।
//देख के तुझको हैं जीते हम तो//
इस मिसरे पर आ. समर सर, और आ. अमीरुद्दीन अमीर सर की बेहतरीन इस्लाह के बाद आपकी इस्लाह मिली मेरा सौभाग्य है, तीनों ही मिसरों को गुनगुनाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा की जिस लय में मैं इस ग़ज़ल की गुनगुना रहा हूँ उसमें सबसे निकटतम आदरणीया आपका सुझाया मिसरा--
"देख के तुझको ही जीते हैं हम" बैठ रहा है अतः इसे ग़ज़ल आभार सहित रख रहा हूँ।
//रोज दिल करता है,इजहार मुझे"// इस मिसरे पर आ. समर सर और आपके सुझाव को मानते हुए यह शे'र इस तरह करता हूँ:
सामने सबके बयाँ करता नहीं
"रोज दिल कहता है, सौ बार मुझे"
आ. आपने मतला
//ये अलग बात कि इनकार मुझे
तेरे साये से भी है प्यार मुझे।//
में ऊला मिसरे के लिए जो मिसरा सुझाया है
// बात सच है, नहीं इनकार मुझे//
निश्चित रूप से यह मिसरा शे'र को एक निश्चित मानी प्रदान कर रहा है।लेकिन जिस भाव के लिए मैंने वो शे'र कहना चाहा है कि "जीवन के सफर में बहुत बार ऐसे मकाम आते हैं कि हमारे जबाँ मजबूरन कुछ और कहती है और दिल कुछ और गवाही देता है, इस भाव में परिवर्तन हो जा रहा है। आदरणीया इस ग़ज़ल की जमीन इसी शे'र से बनी है सबसे पहला शे'र भी होने के नाते दिल के बहुत करीब है इसलिए इसे परिवर्तित करना मेरे लिए संभव नहीं है।एक बार पुनः बहुत बहुत आभार आदरणीया आपकी उत्साहवर्द्धन से नई उर्जा मिली। अपना स्नेह बनाएं रक्खें।
सादर
आ. समर सर कई दिनों सोचने तथा छानबीन के बाद इस बात से सहमत नहीं हो सका की मिसरे " रोज दिल करता है इजहार मुझे" में रदीफ़ "मुझे" के साथ इंसाफ नहीं हो रहा।
दोनों शब्द मुझे और मुझसे प्रचलन में हैं
रोज दिल करता है इजहार मुझे // और रोज दिल करता है इजहार मुझसे
दोनों ही पूर्ण अर्थ दे रहें हैं ।
मेरी समझ में एक प्रतीक के रूप में "मुझे" ज्यादा बेहतर अभिव्यक्ति दे रहा है,
जैसे: "उसकी आंखें मुझे इजहार करती है।"
जबकि "उसकी आंखें मुझसे इज़हार करती है।"
दोनों में "मुझे" कहना बेहतर होगा क्योंकि दिल हो या आंख दोनों ही संदर्भ में वास्तविक रूप से इजहार नहीं हो रहा, यह प्रतीक के रूप में है। यदि कोई व्यक्तिगत रूप से किसी को किसी बात का इजहार करें तो "मुझसे" का प्रयोग कहीं ज्यादा बेहतर रहेगा, और अधिक स्पष्टता लाएगा।
पुनः उदाहरण देखें : "रीना ने मुझसे इजहार किया।" ज्यादा स्पस्ट है "रीना ने मुझे इजहार किया".... से। जबकि
"मेरे दिल ने मुझे इजहार किया।" ज्यादा स्पष्ट अर्थ दे रहा है "मेरे दिल ने मुझसे इजहार किया" से।
हालांकि "मुझे" और "मुझसे" दोनों का ही प्रयोग अर्थपूर्ण है।
सादर
दूसरे उदाहरण में 2122 की जगह 212 टाइप हो गया है ।
//रोज दिल करता है,इजहार मुझे"
यहां दिल को "सेकेण्ड पर्सन" के रूप में मैंने पेश किया है क्या रदीफ़ के मानी को यह पूरा नहीं कर रहा??//
जी, हाँ ! इस मिसरे में रदीफ़ काम नहीं कर रही है,इसमें 'मुझे' की जगह 'मुझसे' कहना होगा,उदाहरण:-
2122 1122 22
'रोज़ दिल करता है मुझसे इज़हार'
या
2122 2122 212
'रोज़ दिल करने लगा इज़हार मुझ से'
उम्मीद है समझ गए होंगे?
आदरणीय समर सर ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति मेरे लिए वंदनीय है,
" रोज दिल करता है,इजहार मुझे"
यहां दिल को "सेकेण्ड पर्सन" के रूप में मैंने पेश किया है क्या रदीफ़ के मानी को यह पूरा नहीं कर रहा??आ. कृपया मार्गदर्शन करें।
//गम मेरे आपही हो जाएं फ़ना
तू अगर ले बना गमख़्वार मुझे//
इस शेर को करीब पांच तरह से लिखा था मैंने, लेकिन सानी को लयात्मकता के साथ दुरस्त नहीं कर सका। आदरणीय आपने जिस तरह से कुछ पलों में रवानी के साथ ठीक किया है,यह सालों-साल के एक लंबे तर्जुबे से ही सम्भव है।आदरणीय इसी प्रकार मुझ नाचीज पर अपनी नजर बनायें रक्खें। नमन।
>आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर सर जी ग़ज़ल पर आपकी दाद पाकर अंतर्मन आनन्दित हुआ। आपने ग़ज़ल पर इतना समय दिया,आपकी उपस्थिति से अभीभूत हूँ//था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह//मेरे ख्याल से आ. समर सर जी ने इस मिसरे को स्पष्ट कर दिया है.//देख के तुझको जीते हैं हम तो// आपकी बारीक नजर ने इस दोष को की तरफ ध्यान दिलाया,आभारी हूँ। मक्ते के रूप में सुझाया गया मिसरा बहुत पसंद आया//आ. समर सर ने भी इसे दुरस्त करते हुए जो मिसरा सुझाया है बहुत खूब है। अब असमंजस है रक्खूं किसे,सो इसे लय और शे'र की मांग पर वख्त के हवाले छोड़ता हूँ। सादर।
जनाब 'जान गोरखपुरी' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'रोज दिल करता है, इजहार मुझे'
इस मिसरे में रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं हुआ,देखियेगा ।
'था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह'
इस मिसरे में आपने एक साकिन की छूट का फ़ाइदा लिया है,जो ठीक है ।
'देख के तुझको हैं जीते हम तो'
इस मिसरे को यूँ कह सकते हैं:-
'देख के जीता हूँ तुझको मैं तो'
'ग़म मेरे आपही हो जाये फ़ना..
तू अगर ले बना, गमख़्वार मुझे'
इन शैर का शिल्प और सानी का वाक्य विन्यास ठीक नहीं है,इस शैर को यूँ कहना उचित होगा:-
'ग़म तेरे आप ही हो जाते फ़ना
तू बना लेता जो ग़म ख़्वार मुझे'
बाक़ी शुभ शुभ ।
जनाब कृष मिश्रा 'जान' साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, आपकी इस ग़ज़ल में सादगी और रवानी है कई शे'र बहुत उम्दा हैं।
'था हर इक दिन कभी त्यौहार की तर्ह'... इस मिसरे में लय बाधित हो रही है और बह्र के अनुकूल भी नहीं है, चाहें तो यूँ कर सकते हैं
'था हर इक दिन कभी त्यौहार सा ही'
'देख के तुझको हैं जीते हम तो
है नफ़स जैसी तू, दरकार मुझे' इस शे'र में शुतरगुरबा दोष है, ऊला चाहें तो यूँ कर सकते हैं
'देख के 'जान' तुझे जीता हूँ - है नफ़स जैसी तू दरकार मुझे' आप चाहें तो इसे मक़्ता बना सकते हैं। चन्द टंकण त्रुटियाँ दुरुस्त कर लें। सादर।
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