अपूर्ण मानव की अर्ध-क्षमताओं का पूर्ण उपहास उड़ाता
बीतते बीतते बीत गया यह साल
धरा चलती रही ,परिक्रमा करती रही
निज धुरी की भी सूरज की भी ...
चंद्रमा ने भी हिम्मत कहाँ हारी
ग्रहणों से ग्रसित होता रहा
मगर परिक्रमाएँ ढोता रहा
तारों ने कहाँ टिमटिमाना छोड़ा
घोड़ों ने कहाँ हिनहिनाना छोड़ा
कोयल भी वैसी ही कूकी
कागा भी वैसे ही कगराया
बस सिसकी किसी की फूटी
किसी का गला गले तक भर आया
मेरी सदी का यह बीसवाँ साल
सिखाने चला था याद दिलाने चला था
मानव को विरासता का निज आरोपित दासता का
स्मरण दिलाने चला था
कि कितने असुरक्षित अक्षम हो तुम कितने हो सस्ते
चौकस सीमाएं,असले- मसले अस्त्र -शस्त्र ,सेनाएँ बारूदी दस्ते
अणु-परमाणु मिसाइल की क्षमता,
कितनी गलत तुम्हारी प्राथमिकता ?
समंदर को भाप कर, अंबर को नाप कर
सोच लिया प्रगतिवान हो गए ?
खजाने जोड़ सोचा धनवान हो गए ?
लेकिन हुआ क्या ?
बस एक कोशकीय आया,
बिन पैरों से चला पूरी पृथ्वी लांघ ली
बस एक कोशकीय आया उंगली तक नहीं उठाई
पूरी पृथ्वी मुट्ठी में बांध ली
बस एक कोशकीय आया कोई चेतावनी तक नहीं दी
पूरी पृथ्वी के हर द्वार पर सांकल टांग दी
बस एक कोशकीय आया कोई अस्त्र शस्त्र न चलाया
विश्व युद्ध से अधिक जाने मांग ली
बस एक कोशकीय आया
आदमी को आकाश से उतारा ज़मीन पर ला दिया
अपूर्ण मानव की अर्ध-क्षमताओं का पूर्ण उपहास उड़ा दिया
बस एक कोशकीय आया आदमी को घर बिठाया
और कुदरत ने कितना कितना जश्न मना लिया
नदियों ने निज को कितना कितना धो कर नहला लिया
जंगल ने फिर से कितना कितना मोर नचा लिया
हवा ने कितना कितना जी भर भर के सांस लिए
अंबर ने फिर से कितना कितना अमृत बरसा दिया
धरा ने थाम लिया कुदरत का हाथ ,
दोनों भली बहनें चली साथ साथ
मानव का महज कुछ दिन का छिपना धरा जल गगन का इतना उद्धार
भूल घटी, धूल हटी दिशाओं को दिखने लगा आर -पार
और सभी कुछ हो गया ऐसा,
होना चाहिए सदा जैसा वैसा
नए साल कुछ नया सिखाना
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मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ. अमिता जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
मुहतरमा अमिता तिवारी जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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