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बोझ ...(250 वीं रचना )

बोझ ...

हम
कहाँ जान पाते हैं
चेतन या अवचेतन में
अटकी हुई कुंठाओं की
मूक भाषा को

उनींदी सी अवस्था में
कुछ सिमटी हुई
आशाओं को

मन में उबलते
एक असीमित बोझ की
पहचान को

साँसों की थकान
अश्रु की व्यथा
और
रुदन के आह्वान को

तुम्हारे
स्पर्श की अनुभूति में लिप्त
क्षणों की
परिणिती के आभास ने
यूँ तो
अंजाने संताप से
मुक्ति का ढाढस दिया
किन्तु
जागृति बोध से
हृदय की कंदराओं में
क्यूँ रह रह के
ये विचार आता है
कि कहीं
ये किंचित मात्र सा आभास भी
किसी स्वप्न-रेख सा
ओझल हो गया तो
शायद
जीना भी
इक बोझ
न बन जाए

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 622

Comment

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Comment by Mohammed Arif on May 4, 2017 at 8:03pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, बेहतरीन रचना, भावपूर्ण रचना । 250वीं रचना के लिए ढेरों बधाईयाँ ।
Comment by narendrasinh chauhan on May 4, 2017 at 5:38pm

खूब सुन्दर भावपूर्ण रचना 

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