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ग़ज़ल बह्र 22/22/22/2 अब नारों से डरते हम

अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।


ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।


ये जीना कैसा जीना,

ग़र्बत में ही मरते हम।


सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।


याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Mohammed Arif on February 28, 2017 at 4:05pm
आदरणीय रवि शुक्ला जी आपको ग़ज़ल पसंद आई और सुझाव दिया इसके लिए आपका शुक्रिया ।
Comment by Ravi Shukla on February 28, 2017 at 11:02am

आदरणीय आरिफ साहब बहरे मीर पर अच्‍छे अशआर कहे गजल के लिये दिली दाद हाजिर है चौथे शेर मे अपने भाव के अनुकूल  सपने देखें तो कैसे ( मजबूरी का भाव )  सपने देखे तो कैसे ( अवर्णननीय सपने ) के अनुसार  देखे को ( देखे या देखें ) जैसा भी उचित हो कर सकते है । आप गजल सुनाएंगे तो स्‍वरागधात और उच्‍चारण से काफी कुछ समझ आ जाता है पर लिपि बद्ध रूप में यह शब्‍दों के सही अंकन से ही समझ आएगा । सादर

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