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Umesh katara's Blog – January 2015 Archive (5)

ग़ज़ल-- मेरे हँसने हँसाने पे शक़ है उसे

212  212  212  212

मेरे हँसने हँसाने पे शक़ है उसे

बेव़जह मुस्कुराने पे शक़ है उसे

.................

अलव़िदा कह गया जाता-जाता मग़र

आज़तक भूलपाने पे शक़ है उसे

....................

हर किसी से करूँ ज़िक्र मैं यार का

पर व़फायें निभाने पे शक़ है उसे

...................

कब से तनहाई दुल्हन बनी है मेरी 

पर तुझे भूल जाने पे शक़ है उसे

.................

आँसुओं से समन्दर भी मैंने भरा

मेरे आँसू बहाने पे शक़ है उसे





उमेश…

Continue

Added by umesh katara on January 29, 2015 at 9:19am — 27 Comments

ग़ज़ल--ज़हर आकर पिला दे तू

मुहब्बत को निभा दे तू
ज़हर आकर पिला दे तू
....
नज़र से उठ नहीं पाऊँ
मुझे ऐसा गिरा दे तू
....
व़फायें जानता हूँ मैं
नया कुछ तो सिख़ा दे तू
....
मुझे मँझाधार मैं लाकर
मेरी कश्ती हिला दे तू
....
कभी सोचा न हो मैंने
मुझे ऐसा सिला दे तू
....
क़यी मुद्दत से तन्हा हूँ
मुझे मुझसे मिला दे तू
..
..
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित

Added by umesh katara on January 27, 2015 at 10:00am — 29 Comments

ग़ज़ल--बिना क़श्ती के निकला हूँ ,समन्दर पार करने को

नहीं राजी हुआ कोई ,मेरा किरदार करने को

बिना क़श्ती के निकला हूँ ,समन्दर पार करने को

..

कोई सोये कहीं भूख़ा ,ज़लाये मुल्क़ भी कोई

इन्हें बस वोट लेने हैं, मज़े  सरक़ार करने को

..

कोई मौजूद था मेरा ,मेरे दुश्मन की महफ़िल में

रची साजि़श उसी ने थी, मुझे गद्दार करने को

..

तुम्हारे इक इशारे पर , मेरी ये ज़ान जानीं है

मग़र ज़िन्दा जो रक़्खा हैं,गुनाह स्वीकार करने को

..

चली आयी तसव्वुर में , तेरी तस्वीर धुँधली सी

मेरी ये जान बाक़ी है ,फ़क़त दीदार…

Continue

Added by umesh katara on January 15, 2015 at 8:58am — 18 Comments

मुझे मार कर क़्यों ज़लाया नहीं है

तेरा कुछ भी मुझ पर बक़ाया नहीं है
मुझे मार कर क़्यों ज़लाया नहीं है
..
सज़ा बे-बज़ह ही मिली है क़सम से
क़िसी को भी मैंने सताया नहीं है
..
गया तू नज़र से,मेरी ज़ान लेक़र 
मग़र जहर क्यों कर पिलाया नहीं है
..
मोहब्बत में कर दूँ ज़रा भी मिलावट
व़फा ने ये मुझको सिख़ाया नहीं है
..
मुझे कह रही हैं मुसलसल ये हिचकी
अभी तक भी तूने भुलाया नहीं है

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

Added by umesh katara on January 11, 2015 at 7:30pm — 27 Comments

ग़ज़ल----उमेश कटारा

1222   1222   1222   1222



डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे

तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे



किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां

तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै



मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया

मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे



चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का

किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे



बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग

मज़ा-ए- इश्क़…

Continue

Added by umesh katara on January 6, 2015 at 11:00pm — 9 Comments

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