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गिरिराज भंडारी's Blog – August 2015 Archive (5)

ग़ज़ल - आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या ( गिरिराज भंडारी )

2122 1212    112 /22

डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या

और अगर बच नहीं सकी तो क्या

 

देख क्या आदमी ही जीता है ?

आदमी में है आदमी तो क्या

 

जब कहे को नही समझते हैं 

रह गई बात अनकही तो क्या

 

भूख आदाब कब  समझती है

बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या  

 

जारी फिर चाँद ने किया फतवा

बे असर चाँदनी रही तो क्या

 

फूल पत्तों में आज खुशियाँ हैं

जड़ अँधेरों से है घिरी तो क्या

 

दुन्दुभी…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 20, 2015 at 9:56am — 20 Comments

ग़ज़ल - नींद वाली थीं कभी रातें नहीं -- गिरिराज भंडारी

2122 2122 212

आप सीमायें अगर लांघें नहीं

बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं



वो समर के वास्ते तैयार हैं

हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं



हक़ हलाली की कोई रोटी दिखा

भीख से जी कर तो यूँ नाचें नहीं



शेर बन के सामने आजा कभी

गीदड़ों सी पीठ पर घातें नहीं



चैन खातिर दिन तरसता रह गया

नींद वाली थीं कभी रातें नहीं



दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें

अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं

अस्लिहा – हथियारों , बाब – अध्याय



आप…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 8:30am — 18 Comments

हिन्दी गज़ल - अब हृदय में आपका आना मना है ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122   2122

आप रो देंगे बहुत संभावना है

अब हृदय में आपका आना मना है

 

अब क्षितिज पर फिर उजाला दिख सकेगा

यों, अँधेरा इस पहर काफी घना है

 …

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Added by गिरिराज भंडारी on August 12, 2015 at 7:53am — 25 Comments

ग़ज़ल - बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने की ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222      1222       1222

*******************************************

बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने  की

मुझे फिर घेर लेतीं हैं वही खुशियाँ जमाने की

 

अगर सच है, तो वो सच है ,कभी कह भी दिया कोई

जरूरत क्या पड़ी थी आपको यूँ तिलमिलाने की

 

यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख

तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की

 

अँधेरा इस क़दर हावी न हो पाता किसी आंगन

रही होती अगर चाहत दिये हर घर जलाने…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:16pm — 23 Comments

ग़ज़ल - जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही ( गिरिरज भन्डारी )

221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )

( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )

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जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही

तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही

 

फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से

पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही

 

मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर

मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही 

 

बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:53pm — 24 Comments

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