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ARVIND BHATNAGAR's Blog – October 2013 Archive (4)

दीपावली : एक

घर में वह नोट कितना बड़ा लग रहा था , मगर बाज़ार में आते ही बौना हो कर रह गया । वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या खरीदें , क्या न खरीदें । मुन्ना निश्चय ही पटाखे - फुलझड़ियों का इंतज़ार कर रहा होगा । उसकी बीवी खोवा, मिठाई , खील- बताशे और लक्ष्मी - गणेश की मूर्तियों की आशा लिए बैठी होगी, ताकि रात की पूजा सही तरीके से हो सके ।



वह बड़ी देर तक बाज़ार में इधर उधर भटकता रहा । शायद कहीं कुछ सस्ता मिल जाए । मगर भाव तो हर मिनट में चढ़ते ही जा रहे थे । हार कर उसने कुछ भी खरीदने का इरादा छोड़ दिया ।…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on October 24, 2013 at 9:00pm — 23 Comments

ज़िन्दगी

जाने किस आशंका से
त्रस्त मन /
झंझावात मे
नन्हा सा दिया /
अब बुझा कि तब बुझा /
अर्थहीन शब्दों के सहारे
घिसटती ज़िन्दगी
क्या यही है ?
किम्वदन्ति बन गई है
तथागत को मिली शान्ति /
आत्म मंथन करने पर
कालिख ही कालिख हाथ लगी /
दोषारोपण सवेरो पर ,
सूरज की किरणे
किसी अंधी गली में सोई मिली ।

मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर 'शेखर'

Added by ARVIND BHATNAGAR on October 22, 2013 at 9:30pm — 11 Comments

तान्या : वो लम्हा चित्रलिखित सा

हर इंसान के जीवन में

एक लम्हा

ऐसा आता है /

वक़्त नहीं थमता,

वह लम्हा

रह जाता है खड़ा हुआ

ज्यों चित्रलिखित सा ।

और कभी

जब चलते चलते

थक जाता है वक़्त

तो

इस लम्हे की छाया में

कुछ देर बैठ कर सुस्ताता है|

और कभी

जब बदली छा जाती है ,

और मन का पंछी

घबरा जाता है

तो यह लम्हा

इन्द्रधनुष सा

आसमान में बिखर जाता है /

और ये मौसम पहले जैसा खुशगवार

फिर हो जाता है ।

मै तो ऐसा…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on October 16, 2013 at 4:27pm — 15 Comments

तान्या : महसूस किया तुमको

इन मौन चट्टानों के सामने खड़ा

यह सोचता हूँ ,

कितनी कठोर हैं ये /

जितनी कठोर लगती हैं

क्या उतनी ही?

या कहीं ज्यादा ?

क्या भेद सकेगा कोई इनको?

और फिर मैं देखता हूँ

आकाश की ओर /

बदली छाई है ,

धूप का कतरा नहीं है ।

और फिर क्या देखता हूँ

तोड़ कर प्रस्तर कवच को ,

मोतियों सा झर रहा है ,

दुधिया झरना ।

भूल जाता हूँ मैं 

कि

कितने कठोर हैं ये पाषाण खंड ,

कि

मैं इन्हें भेद नहीं…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on October 2, 2013 at 12:30pm — 22 Comments

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