हिम्मत है तो मुझसे आकर द्वंद करो। वरना यूँ अनर्गल प्रलाप को बंद करो॥
छोरे छोरी में जो भेद करे ऐसे। गाँव की सगरी ऐसी खाप को बंद करो॥… |
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 27, 2018 at 2:00pm — 2 Comments
जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।
ज़िंदगी के इम्तेहा भी कब तलक॥
आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा।
वक़्त होगा मेहरबाँ भी कब तलक॥
ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं ।
तुझमें ढूँडू ख़ूबियाँ भी कब तलक॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 23, 2018 at 11:30am — 1 Comment
हर घर में एक राम है रहता।
हर घर में एक रावण भी॥
जैसी जिसकी सोच है रहती।
उसको दिखता वो वैसा ही॥
टूट शिला से छोटा टुकड़ा।
लुढ़क रहा मंदिर की ओर॥
कोई देखता उसको पत्थर।
कोई देखता भगवन को॥
आस्था और विश्वास जहां हो।
तर्क नहीं देते कुछ काम॥
मानो या न मानो लेकिन।
बनते सबके बिगड़े काम॥
धर्म-अधर्म सब अंदर अपने।
पीर पड़े लगे राम को जपने॥
वर्षो से यही रीत चल रही।
इच्छाओं की गति…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 22, 2018 at 5:30pm — 1 Comment
मुश्किलों में मुस्कुराना सीख लो।
ज़िंदगी से दिल लगाना सीख लो ॥
शौक़ पीने का तुम्हें माना मगर।
दूसरों को भी पिलाना सीख लो॥
ढूँढने हैं मायने गर जीस्त के।
तो राग तुम कोई पुराना सीख लो॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 20, 2018 at 5:30pm — 2 Comments
ये क्या हो रहा मेरे प्यारे शहर को,
कहीं क़त्ल-ओ-गारत कहीं ख़ून के छीटें,
के घायल हैं चंदर कहीं पे सिकंदर,
के हर ओर फैले हुए अस्थि पंजर,
के तुम ही कहो कैसे देखूँ ये मंजर,
के आँखों के सूखे पड़े हैं समंदर ।।…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 12, 2018 at 3:00pm — 3 Comments
आज फिर बापू को हमने याद दिल से कर लिया ।
और सारे साल फिर इनसे किनारा कर लिया ।।
फूल चरणों में चढ़ाकर सोचते सब ठीक है ।
रूप बगुले का बशर ने फिर तिबारा कर लिया।।
परचम-ए-खादी तिरंगे में लिपटकर…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 2, 2018 at 9:00am — 5 Comments
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