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हिम्मत है तो मुझसे आकर द्वंद करो।

वरना यूँ अनर्गल प्रलाप को बंद करो॥

 

छोरे छोरी में जो भेद करे ऐसे।  

गाँव की सगरी ऐसी खाप को बंद करो॥

 

अपने खूँ पर ही जो बुरी नज़र डाले तुम।

बंदीगृह में ऐसे बाप को बंद करो॥ 

 

थोड़ी सी तकलीफ़ में ही घबराते हो। 

रोज़ रोज़ ऐसे संताप को बंद करो॥

 

मेरे हो तो मेरे बनकर दिखलाओ।   

वरना झूठे इस मिलाप को बंद करो॥

 

पीते और मर जाते कितने लोग यहाँ।  

बिकती दुकानों से आब का बंद करो॥

 

शायद एक दिन हुक्म भी ये आ जाएगा।   

फलक पे रोशन आफ़ताब को बंद करो।।

 

सीख ले शिद्दत से इसको या भूल ही जा।

प्रतिदिन तुम बेसुरे अलाप को बंद करो॥

 

साथ समय के तुम भी ढलना सीखो “दीप”।

अपने अंदर बढ़ते ताप को बंद करो॥

-प्रदीप भट्ट-

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 31, 2018 at 7:01pm
माफ़ कीजिए हुज़ूर, ऐसा कुछ भी नहीं है।
व्यस्तता ज़्यादा होने के कारण मैं ओ बी ओ मैं ज़्यादा समय नहीं दे पाता हूँ,
किंतु आप जैसी शख़्सियत की राय अवश्य पढ़ता हूँ। अपना कुछ भी लिखा हुआ मैं जितनी बार पढ़ता हूँ
तो लगता है कि कुछ कमी रह गई है। जितना आता है ठीक करने का प्रयास करता हूँ फ़िर भी कुछ छुट ही जाता है।
ख़ैर आप अपनी दुआ बनाए रखें।
Comment by Samar kabeer on October 28, 2018 at 5:24pm

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,आप ओबीओ पर सिर्फ़ ग़ज़लें पोस्ट करने आते हैं,सीखने सिखाने में आपकी रुची नहीं है, इस प्रस्तुति पर बधाई ।

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