धीरज धर कर जीवन को , पाला होता काश
पुष्प ना बनता मैं भले , बन ही जाता घास
कितने जमनों का भँवर लिपटा मेरे पाव
धूप भी अब लगती सुखद जैसे ठंडी छाव
प्यासे को पानी मिले , गर भूखे को अन्न
हर गरीब हो जाए इस , धरती पे संपन्न
आकर बैठो पास में मेरे भी , कुछ वक़्त
आगे का लगता सफ़र होने को है सख़्त
मिला मुझे जैसा भी जो , स्वीकारा बे-खोट
इसलिए शायद हृदय , पाया मेरा चोट
नींदे जगती रात भर , सोते रहते…
ContinueAdded by ajay sharma on October 29, 2014 at 10:30pm — 8 Comments
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