आदरणीय साथियो,
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15 साल के किशु ने सारा घर सर पर उठा रखा है। कभी रो रहा है, कभी चिल्ला रहा है, कभी इधर जाने की तो कभी उधर जाने की कह रहा है। पुलिस में जाने की बात भी उसके मुँह पर बार बार आ रही है। सोशल मीडिया पर मैसेज डालने के बारे में भी सोच रहा है। कुल मिलकर इतनी बेचैनी उसने आजतक महसूस नहीं की थी। और आज तक ऐसा हुआ भी तो नहीं था जैसा आज हुआ है। दरअसल उसका प्यारा कुत्ता टॉब दो घंटे से लापता था और उसे लग रहा था कि किसी को कोई चिंता ही नहीं। सब को अलग अलग बोल रहा है, पर सब एक ही बात कह रहें हैं कि आ जायेगा कुछ देर में। इधर उधर हो गया होगा।
पापा को फ़ोन करके बुलाया कि कुछ करिये तो वो आ तो गए पर बोले कि घबराने की कोई बात नहीं, कुत्ता कहीं नहीं जाता। उसे रास्ते याद रहते हैं। आ जायेगा अपने आप। शाम तक नहीं आया तो कुछ सोचेंगें।
मम्मी पर तो वो बरस ही पड़ा कि आपने ज़रूर खुला छोड़ दिया होगा। टॉब को भी और गेट को भी। पर मम्मी क्या कहती। उन्होंने भी थोड़ा दिलासा दिया और अपने काम में लग गई।
इधर किशु अपने स्तर पर ढूंढ ही रहा था। गली के पाँच-सात चक्कर लगा चुका है। आस-पास वालों से भी पूछ लिया कईं-कईं बार। कुछ अता-पता नहीं लग रहा।
खयालों में भी अजीब अजीब बातें डेरा कर रहीं थीं। कहीं वो सड़क पर चला गया तो कुछ भी हो सकता है। किसी ट्रक के नीचे तो……. नहीं। कोई उठा कर तो नहीं ले गया। तीन-चार दिन से एक तो बाइक वाले इधर चक्कर लगा रहे थे बिना बात के। और कल तो उन्होंने रुक तो टॉब को पूचर-पूचर भी किया था। ओहो, टॉब था भी तो कितना प्यारा, कभी भौंकता भी नहीं किसी पर। सबके साथ घुल-मिल जाता था। और कहीं दूसरी गली के कुत्तें तो नहीं टूट पड़े हों उसपर। सब ग़लत ही आ रहा दिमाग़ में। सोचते-सोचते वो फिर कमरे में आ कर बैठ गया।
इतने में उसे टॉब की आवाज़ सुनाई दी। भाग कर वो गेट पर पहुँचा तो देखा कि टॉब ही है। दोनों एक दुसरे से लिपट गए। पापा-मम्मी पास आये तो किशु नाराज़गी में दिखा। बोला, “आप को कोई चिंता नहीं हुई ना मेरे टॉब की।”
पापा तो मुस्कुरा कर रह गए पर मम्मी बोल उठी, “पता चला कि जब तुम बिना बताये ग़ायब होते हो, और शाम को आकर हमारे पूछने पर कहते हो कि इतनी चिंता क्यों करते हो। मैं बच्चा थोड़े ही हूँ। तो हमें कैसा लगता है।”अब टॉब को सहलाते किशु के हाथ धीरे हो गए थे।
#मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब। गोष्ठी का भावपूर्ण रचना से आग़ाज़ करने हेतु हार्दिक बधाईआदरणीय अजय गुप्ता 'अजेय' जी। यूँ तो यह रचना एक घटना या संस्मरणात्मक बोध कथा सी है, लेकिन इसका अंत ज़बरदस्त है। वाकई यह एक बढ़िया रचना है। लघुकथा है या नहीं, यह तो वरिष्ठ लेखक हमें समझायेंगे। यह पंक्ति देख लीजिएगा //अब टॉब को सहलाते किशु के हाथ धीरे हो गए थे/ हाथ की गति धीमी हो गई थी//
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। बहुत अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय अजय जी,विषय तो बहुत ही मार्मिक है।इसे और मार्मिकता से पिरोने की जरूरत है।भाषा की शुद्धि,वाक्यों की कसावट और विराम चिह्न पर ध्यान देना ज्यादा लाजिमी प्रतीत होता है।
कैसा अनुभव( लघुकथा)
वैसे भी देर से मैं थ्रिविलर में बैठा कुछ अजीब-सा महसूस कर रहा था। पहले तो मुझे ऐसा लगा कि क्यों न मैं इस थ्रिविलर को छोड़ कर किसी दूसरे में बैठ जाऊँ। क्योंकि इस में अभी तक कोई और सवारी आ के बैठ नहीं रही थी और मुझे देर हो रही थी। मगर जैसे वह सवारी ढूढने की कोशिश कर रहा था, उस के साथ मेरी सहानुभूति बढ़ती जा रही थी। एक तरफ वह तेज़-तेज़ आवाज़ें लगा रहा था दूसरी तरफ़ उस की आवाज़ में बेबसी झलक रही थी। अचानक एक ई रिक्शा आ कर खड़ गया, वह कुछ बुदबुदाया, जल्दी ही एक सवारी उस में आ कर बैठने लगी। तब उसने ई रिक्शा वाले को यह सवारी उसे देने को कहा। लेकिन ई रिक्शा ने मना कर दिया, एक बार थ्रिवियर वाले ने फिर कहा, जब ई रिक्शा वाला न माना तो उस ने ई रिक्शा के ड्राईवर से यात्री का सामान लिया और अपने थ्रिविलर में रख दिया। साथ ही उस ने यात्री से किराया कम करने का भी प्रलोभन दिया। कुछ देर विरोध करने के बाद वह सवारी देने को तैयार हो गया। सवारी बिठा कर जब ई रिक्शे वाला जाने लगा, तो ड्राइवर की सीट पर बैठते ही थ्रिविलर साथी ने उसे गाली देनी शुरू कर दी। मैं यह सब देखकर बहुत हैरान हुआ, फिर मैंने पूछा, "अगर उसने तुम्हें सवारी दे दी, फिर भी तुमने उसे गाली क्यों दी?" सर जी, क्या करें? ये तो मुफ्त बिजली होने से ई-रिक्शा को फ्री से चार्ज कर लेते है, इस लिए ये कम पैसे में सवारी ले जाते हैं। हमें तो महंगा तेल खरीदना पड़ता है। हम अगर इनकी तरह सस्ती व इक दो सवारी ले कर जायेंगे तो बच्चों को क्या खिलाएंगे? "दिल में जो आता है, ये हमारी जुबान को गंदा कर देता है।" मगर क्या करें? फिर कहा आप ही बताओ अगर कांटे चुभ रहे हैं तो फूल जैसी भाषा कैसे निकलेगी। हर दिन यह सब झेलना पड़ता है। तो। यह सुनकर मैं चुप रह गया और तब तक चुप रहा, जब तक मैं पूरा किराया दे उसके थ्रिविलर से नीचे नहीं उतर गया। "मौलिक व अप्रकाशित"
नमस्कार। विषयांतर्गत संस्मरणात्मक बढ़िया भावपूर्ण रचना हेतु मुबारकबाद आदरणीय मोहन बेगोवाल साहिब। अनुभवों के एक महत्वपूर्ण पल/विसंगति पर एक पैनी दृष्टि रही है आपकी। ऐसे अनुभव हर ऑटो रिक्शा/ई-रिक्शा सवारी को होते हैं, लेकिन बहुत कम लोग ही पीड़ित वाहनचालक की भावनाओं और समस्याओं को दिल से महसूस कर पाते हैं। पापी पेटों के सवाल अभिव्यक्ति करा देते हैं। आपकी रचनाओं में टंकण त्रुटियों की समस्या व कारणों से हम वाक़िफ़ हैं। कोई बात नहीं।
आदरणीय मोहन जी,एक अति महत्वपूर्ण विषय का प्रतिपादन हुआ है। हां,लघुकथा को सही रूप देने के लिए कुछ और प्रयास जरूरी लगता है।कसावट,शुद्धि वगैरह वांछनीय बिंदु होंगे, सादर।
कन्फ्यूजन
"ट्रिमर लगा दूं,सर?" सैलून के नाई ने मुझसे पूछा।
"ट्रिमर क्या?" मैंने सवाल किया।
"मशीन से बाल बनाऊं या कैंची से?"
"बाल थोड़े छोटे करने हैं।अब आप जानिए, कैसे करेंगे।मशीन चलाना तो आपको है।" मैंने बेतकल्लुफी से जवाब दिया।
"कैंची से ही करो।मशीन से बाल ज्यादा छोटे हो जाते हैं।" एक दूसरे ग्राहक के सिर के बचे -खुचे बाल पर कैंची फिराते हुए नाई का दूसरा साथी बोला।
"सही बात।" मेंने हामी भरी।नाई मेरे सिर के सघन श्वेत - श्याम बेतरतीब बाल -समूह पर कैंची फिराने लगा .... कच कच कच। सिर पर बचे - खुचे बाल वाले अधेड़ व्यक्ति ने एक बार मेरे सिर को निहारा।फिर अपने सिर पर नजर गड़ाई। 'उफ्फ ..' उसने लंबी सांस ली।किंचित क्षण मौन रहने के उपरांत वह नाई से बोला, "जानते ही हो, मैं कहावतें कहता रहता हूं।'
नाई ने हामी भरी।
सिर पर गिने -चुने बाल वाला वह व्यक्ति जो अबतक इधर - उधर की बातें कर रहा था,शुरू हो गया, " कुछ लोग कन्फ्यूज होते हैं।एक आदमी बाल बनाने गया।नाई के पूछने पर उसने कहा कि जो अच्छी स्टाइल हो,वैसी कर दो।हजामत हुई।पर वह स्टाइल उसे पसंद नहीं आई।हजाम ने दुबारा अमेरिकी स्टाइल कहकर उसके बाल बनाए।उसे वह भी पसंद नहीं आई।फिर इटालियन कहकर बाल सजाए गए।वह भी उसे नागवार गुजरा।तब नाई ने उसके सिर के बाल पूरे सफाचट कर दिए।"
इतना कहकर वह व्यक्ति मेरी तरफ देखने लगा। मैंने आवाज की तीव्रता से यह महसूस किया। शायद उस फिकरापसंद आदमी की ईर्ष्या - भावना हिलोर मार रही थी। मैं चुपचाप सब सुनता रहा। मेरे बाल कट रहे थे।
वह व्यक्ति फिर शुरू हुआ, "हजामत वाली फरियाद राजा तक पहुंची।राजा ने आदेश पारित किया कि जो व्यक्ति हजामत बनवाने में कन्फ्यूज हो,उसके बाल सफाचट कर दिए जाएं।"
किस्सा समाप्त कर वह मौन हुआ।उत्साहित था।फिर मेरी तरफ कम,मेरे बाल की तरफ ज्यादा देखता रहा। मैं बोला, "बोरिंग रोड में एक आदमी हैं।पढ़े -लिखे थे।अब यही किस्सा दुहराते फिरते हैं।"
"हां,अब गड़बड़ा गए हैं।" फिकरापसंद आदमी की हजामत करता हुआ नाई बोला।
"शायद शिक्षक थे कहीं।अब डिरेल हो गए है।" मैंने सरल लहजे में कहा। फिकरापसंद व्यक्ति झेंप गया।तीर निशाने पर लगा था।
कुछ देर बाद उसने अंग्रेजी की लकुटी थाम ली।नाई से बोला, "हम कॉलेज में थे न,तब मेरा एक साथी मेरा मुस्टेको बनाता था। मैं भी सीख गया।"
"मुस्टेको क्या हुआ?" मैं ने लगाम खींची।
"मूंछ।और क्या?" वह झुंझलाकर बोला।
"हे हे हे!उच्चारण गलत हो गया।" मैंने सपाट लहजे में कहा।
उसकी अंग्रेजी की लकुटी भी टूट गई थी। लजाया हुआ वह इंसान उठा और तीर की गति से चल पड़ा।ठाकुर बोला, "हजामत के पैसे तो देते जाओ।"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
आदाब। इस बार विषयांतर्गत विविधता लिये रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। रचना के अंदर क़िस्से की बुनावट। रोचकता के साथ कन्फ्यूजन का मिश्रण। यह सब पाठक को रोचकता देते हुए भी तनिक उलझा सकता है। मैं पुनः पढ़ कर देखूँगा। आप भी एक बार देखिएगा कि रचना में प्रवाह कहाँ और क्यों बाधित हो रहा है अस्पष्टता देते हुए। सादर।
* जिद्द *
मेरी उम्र के अनुसार मेरे अनुभव जो मैंने अपनी वयानुसार देखे समझे व् व्यतीत किये अधिकाधिक १० के करीब होंगे जैसे सभी मानव प्रजातियों के होते हैं , वस्तुतः कमोवेश किसी के कुछ कम व् किसी के कुछ अधिक लेकिन ये बात तय है कि ये अनुभव जो कि हम सब ने देखे होते हैं व् उनसे अपने जीवन मैं मूल्यवान परिवर्तन भी किये होते हैं। ऐसे ही एक अतिविशिष्ट अनुभव मैं आप सबके समक्ष रखना चाहूंगा , मैं कोई उस वक्त १२ साल की अवस्था का रहा होउंगा, इस उम्र में बालक की इच्छाएं तो जाग्रत हो जाती हैं लेकिन ज्ञान और समझ उतनी नहीं होती। खैर मैंने भी अन्य बालकों की तरह अपने माता पिता से तरह तरह की मांग रखनी शुरू कर दी थी और वो अपनी आर्थिक अवस्था के चलते उनको या तो मना कर देते थे या यथा सम्भव कोशिश करते थे या टालमटोली देते थे। जिसके चलते मैं बहुत चिड़चिड़ा खिन्न व् उश्रृंखल होता जा रहा था। मेरे माता पिता ये सब देख अत्यधिक चिन्तित रहते थे व् मुझे येन केन प्रकारेण समझाते रहते थे लेकिन मैं ठहरा जिद्दी कहाँ मैंने वाला। खैर , एक दिन जब हद्द हो गई और मैंने अपनी एक जिद्द के चलते गुस्से में घर की एक कुर्सी जो की उन्होंने बहुत जतन से बहुत समय बाद घर आने वाले मेहमानो के स्वागत सत्कार हेतु बनवाई थी , जोर से पटक दी और दीवार से टकरा कर जिसकी एक टांग टूट गई। माँ ने मुझे तो कुछ नहीं कहा बस अपना माथा पकड़ के बैठ गई , और उसके मुँह से सिर्फ यही निकला बेटा तू हमारी आर्थिक हालत तो जानता ही है हम तेरी रोज रोज की बाल सुलभ मांग व् जिद्द पूरी नहीं कर सकते किसी तरह तेरे पिता जो कुछ भी कमा कर लाते हैं बस जैसे तैसे उस से भोजन वस्त्र व् शिक्षा का ही भरण पोषण हो पाता हैं , बेटा तू हमें तकलीफ मत दिया कर देख तू हमारा बहुत प्यारा बेटा है जब तू बड़ा हो जाएगा तब तुझे समझ आएगी अपनी माँ की बात। तेरे और भी तो भाई बहने हैं वो तो सब समझते है कोई भी जिद्द नहीं करता और वो रोने लगी , कुर्सी के टूटने से एक तो मैं पहले ही बहुत डरा हुआ था दुसरे माँ ने मुझे डाटने की बजाय स्वयं को दोषी ठहराया व् गुस्सा तक न किया मुझे ये बात गहराई से छू गई , अन्तर्मन में एक ग्लानि सी मुझे कचोटने लगी। मैं स्वयं को दोषी मानने लगा और चुपचाप छत पर चला गया। मुझे जब कभी अपने आप से सवाल करना होता था या उसका उत्तर तलाशना होता था तब मैं ऐसे ही एकान्त में छत पर चला जाता था। कोने में छत पर बैठे बैठे मेरे अंदर से एक गहरा प्रतिवाद उठ खड़ा हुआ जैसे मेरा ही एक रूप मेरे विरोध में उठ खड़ा हुआ हो , और मुझे लगा लताड़ने , वो मेरे स्वभाव पर ऐसा हावी हुआ के मुझे उसकी सभी बात अकाट्य सत्य जान पड़ी , उसके माध्यम से मेरे अंदर एक ऐसा विचार उठ खड़ा हुआ जो आज तक इस अधेड़ अवस्था में मेरे लिए मेरी आर्थिक अवस्था का मार्ग दर्शक बना हुआ है मेरा जीवन उसकी तार्किक शक्ति से ही संयमित बन पाया ये मानने में कोई अतिश्योक्ति नहीं। मैं ऐसा निर्णय ले कर नीचे आया और माँ के चरण छू क्र बोला माँ मुझे माफ़ कर दो मैं अभी से अपनी ये बुरी आदत छोड़ दूंगा और आपको कभी परेशान नहीं करूंगा। माँ मैं आज से ही कोई काम करूंगा जिसके माध्यम से मैं अपनी सभी जरूरतों व् यथा संभव घर के लिए कुछ न कुछ धनोपार्जन अवश्य करूंगा। उसी दिन से मैंने अपने एक पारिवारिक मित्र जिनकी टाइप की दूकान थी पर अपने स्कूल के उपरान्त शाम को जब अन्य मेरी उम्र के बच्चे खेलने में लगे होते थे उस समय को उनका नौकर बन कर कार्य करना शुरू कर दिया। जिसके मेहनताने के रूप में वो मुझे टाइप सिखाने लगे व् साथ ही साथ उनकी मदद करने के परिणाम स्वरूप ५ रूपये भी देने लगे , मुझे चूंकि कोई विशेष बाजार से खाने पीने या फिजूल खर्च की आदत तो थी नहीं सो मैंने वो पैसे चुपचाप जमा करने शुरू कर दिये। उस दिन से आज तक उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा मेरी जिंदगी का वो पल मेरे लिए एक ऐसा सबक बन के आया कि मुझे उस १२ साल की अवस्था से लेकर आज तक फिर कभी किसी से कुछ न मांगने की जरुरत पड़ी। दोस्तों मनुष्य को जीवन में संयमी होना नितांत आवश्यक है और जिसने ये अनुभव जी लिया धारण कर लिया वो सदा स्वावलम्बी बन के जिया। ( सर्वथा मौलिक व् अप्रकाशित )
सादर नमस्कार। हार्दिक स्वागत आपका और विषयांतर्गत आपके इस भावपूर्ण प्रेरक संस्मरण का। हार्दिक बधाई इस प्रवाहमय प्रेरक संदेशवाहक रचना हेतु जनाब डॉ. अरुण कुमार शास्त्री साहिब।
दरअसल यह मंच लघुकथा विधा का है। आपने विषय की गहराई भाँपते हुए संस्मरण विधा में अपना महत्वपूर्ण अनुभव बढ़िया व्यक्त किया है। लघुकथा विधा में कुछ कहने हेतु इस अनुभव के किसी एक विसंगति वाले पल को लेकर एक कथ्य सम्प्रेषित करना होगा या इसी रचना को कम शब्दों में (संवादात्मक+विवरणात्मक) शैली में कसावट के साथ बुनकर कहना होगा मेरी समझ अनुसार। शेष वरिष्ठजन हमें मार्गदर्शन दे सकेंगे रचना व विधा संबंधित।
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