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आदरणीय राजेश कुमारी जी, रचना को पसंद कर, उसका मर्म जानकर रचना के समर्थन में टिप्पणी करने हेतु हृदय से आभारी हूँ|
सच कहा आदरणीय वीर मेहता जी सर, हर व्यक्ति चेहरे पे चेहरा चढ़ा कर घूम रहां है और अपनी असलियत को कहीं न कहीं छिपाता है| मैं आपका हार्दिक आभारी हूँ, आपने रचना का मर्म जानकार अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साह वर्धन किया|
आदरणीय चंद्रेश जी, एक अपनी कमियों को कुंठाओं में बदलते देर नहीं लगती यदि उनके भय के कारण मन में बैठे हुए हो. आपने भय और अहं से व्याप्त मन के स्वतन्त्र होकर आनंद की ओर बढ़ते मन को लघुकथा में जिस सधे ढंग से शाब्दिक किया है वह चकित करता है. एक साधारण से कथानक से मानसिक स्वंत्रता का जो ताना बाना बुना है वह अद्भुत है. इस गहन वैचारिक प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई
इस लघुकथा की बहुत बढ़िया समीक्षा कर दी आपने आदरणीय मिथिलेश जी| कमी को कुंठा में बदलते देर नहीं लगती और भय बन जाता है| हृदय से आभार आपका, आपने रचना पर इतना समय दिया|
मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय चन्द्रेश जी, ये तो मेरा भोगा हुआ यथार्थ लिख दिया आपने ! आप दमे से ग्रस्त युवक की बात कर रहे हैं. मैंने तो ’व्यक्तित्व परिवर्तन’ की परिस्थितियाँ भोगी हैं. खैर..
एक अच्छी प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाइयाँ.
आदरणीय सौरभ पांडे जी सर, यह यथार्थ मेरे और भी मित्रों का रहा है, लेकिन आपने यहाँ अपनी टिप्पणी में कहा तो निःसंदेह कोई ऐसी बात होगी जो..... हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ, आपको यदि कोई बुरा समय याद आ गया हो तो| लेकिन समय बदलता भी है और सब कुछ सही भी कर देता है, आप हम सभी के साथ हमेशा हँसते-खिलखिलाते रहें यही ईश्वर से प्रार्थना है| सादर,
आदरणीय चन्द्रेशजी, मेरा वो ’बुरा समय’ आया और गया भी. मैं उसे कत्तई अन्यथा नहीं लेता. लोग मुझे पहचानते ही न थे. मुझे कहना होता था कि मेरा नाम सौरभ है. लेकिनमैं कभी छुप कर या नैराश्य में घुटता हुआ नहीं जीता था. बल्कि बेलाग, दिल खोल कर जीता था. आजभी वैसा ही हूँ.. :-))
मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई कभी. आप तनिक परेशान न हों.
सादर
आदरणीय सौरभ जी सर, अर्थात अपने नाम के अनुरूप ही आप खुशबू फ़ैलाने वाले हैं| बेलाग, दिल खोल कर जीने वाले| हार्दिक धन्यवाद आपका इस कमेंट के लिये| सादर,
नमन
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