आदरणीय साथियो,
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सच्चा झूठा
आज मिश्राजी का जन्मदिन था और इत्तेफ़ाक से रविवार का दिन भी था। हमेशा की तरह इस रविवार भी मिश्रा जी ने अपने दोनों जुड़वा बेटों अनिकेत और बाबुल को बारी बारी बुलाकर सौ सौ रुपए दिए और एक ही सामान लेने दुकान पर भेज दिया। ऐसा मिश्राजी हर रविवार करते थें।
हमेशा की तरह अनिकेत ने सामान लाकर पिता के हाथ में रख दिया और बाकी बचे दस रुपए पिताजी को लौटा दिए। बाबुल भी वही सामान लेकर आया लेकिन हमेशा की तरह बाकी के पैसे पिता को नहीं लौटाए।
मिश्रा जी समझ गए थे कि जो सामान अनिकेत 90 रुपए में लाकर दस रुपए लौटा देता है, वही सामान लाने पर बाबुल पैसे कभी नहीं लौटाता। आज मिश्रा जी ने जन्म दिन के शुभ अवसर पर दोनों बच्चों को सीख देने के लिए बुलाया।
दोनों बच्चे आएं और पिता के पास बैठ गए। बाबुल एक सुंदर सा पेन खरीद लाया था जिसे मिश्रा जी को देकर बोला 'हैप्पी बर्थडे पापा।'
मिश्रा जी उस मंहगे पेन को देखते रहे और बिल्कुल भूल गए कि उन्हें बच्चों को क्या सीख देनी थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब मंच। हार्दिक बधाई प्रदत्त विषयांतर्गत बेहतरीन रचना के साथ गोष्ठी का बढ़िया आग़ाज़ करने हेतु मुहतरम जनाब मिथिलेश वामनकर साहिब। अंतिम चार पंक्तियों को किसी दूसरे तरीके से पेश करके लेखकीय अभिव्यक्ति और विवरण को टाला जा सकता है। यहां कथनोपकथन में झकझोरने वाली बात या चिंतन उत्पादक पंच समेटा जा सकता है मेरे विचार से।
//मिश्रा जी समझ गए थे कि जो सामान अनिकेत 90 रुपए में लाकर दस रुपए लौटा देता है, वही सामान लाने पर बाबुल पैसे कभी नहीं लौटाता।//
(इसकी ज़रूरत नहीं है। यह भाव कथनोपकथन में दिया जा सकता है)
//आज मिश्रा जी ने जन्म दिन के शुभ अवसर पर दोनों बच्चों को सीख देने के लिए बुलाया।//- (यह कथन बोधकथा की ओर ले जा रहा है रचना को मेरे विचार से)
//दोनों बच्चे आएं (आये) और पिता के पास बैठ गए।// - इस वाक्य की आवश्यकता नहीं लगती
//मिश्रा जी उस मंहगे पेन को देखते रहे और बिल्कुल भूल गए कि उन्हें बच्चों को क्या सीख देनी थी।// - यह भी लेखकीय अभिव्यक्ति लगती है इसे किसी झकझोरने वाले कथनोपकथन में बदला जा सकता है मेरे विचार से।
मेरी समझ अनुसार।
आदरणीय उस्मानी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आपके सुझाव अनुसार पुनः प्रयास करता हूं। सादर।
इसी कथ्य को किसी दूसरी शैली में भी ढाला जा सकता है ..जैसे पिता द्वारा अपनी डायरी में इसका जिक्र करना,या किसी मित्र को पत्र में जिक्र करना या टेलीफोन में बताना..कई बार शैली के बदलाव से भी सामान्य दिख रहे कथानक में उठान आ जाता है
आदरणीया प्रतिभा जी, सुझाव हेतु हार्दिक आभार। आपके सुझाव अनुसार पुनः प्रयास करता हूं। सादर
आदरणीय मिथिलेश जी
आपकी कुशल कलम को लघुकथा पर भी चलते देखना अच्छा लगता है।ईमानदारी की सीख देने को तत्पर पिता का अपने उपहार को देखकर असमंजस में आ जाना कि दस रुपये का हिसाब नहीं देने पर डाँटूँ या पैसे बचाकर उपहार खरीदने पर प्यार करूँ...अच्छा भाव है.. हार्दिक बधाई
आदरणीया प्रतिभा जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार आपका। परिवार के सदस्यों को आपस में जोड़े रखने के लिए कई बार झूठ एक अहम भूमिका निभाता है और मरते रिश्तों के लिए संजीवनी का काम करता है। सादर
आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। सादर
लघुकथा हेतु बधाई आदरणीय मिथिलेश जी।
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर
बोल (लघुकथा) :
चंचल, नटखट कन्नू अपनी मम्मी के पास गया और उसे लाड़ सा करते हुए बोला, "स्कूल में सब टीचर्स कहते हैं हमेशा सच बोलना चाहिए, झूठ कभी नहीं बोलना चाहिए।"
"हॉं, ये तो अच्छी बात है सीखने की। लेकिन तुम परेशान से क्यों दिख रहे हो?" मॉं ने उसके चेहरे की उदासी पढ़ते हुए कहा।
"मम्मी तुम यह बताओ, क्या मुझे प्यार करने वाली दादी मुझसे झूठ भी तो बोल सकती है न?"
"क्यों? ऐसा क्या बोल दिया उन्होंने, बेटू?"
"पहले तुम यह बताओ कि गुस्से में सच निकलता है या झूठ?"
"गुस्से में तो इंसान कुछ भी बोल सकता है!"
"तो फ़िर दादी ने गुस्से में झूठ ही बोला होगा!"
"सीधे-सीधे बता न, क्या बोल दिया उन्होंने तुमसे?"
"आज तो वो बहुत ही गुस्से में थीं मम्मी!"
"तो?"
"वो मुझसे बोलीं...!" इतना ही कहकर कन्नू सिसकने लगा।
"बेटा, बता तो सही.. क्या कहा उन्होंने?"
"कितनी बदतमीज़ औलाद पैदा हुई है! ये कहा मुझसे!" मॉं के पल्लू में चेहरा छिपा कर कन्नू रोने लगा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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