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आज खुद को आज कहकर जानता है ..गजल

2122-2122-2122

.

आज खुद को आज कहकर जानता है।।
हल वो बूढ़ा सा शज़र ,पर जानता है।।

किसका कितना पेट भूखा रह गया अब ।
घर का चूल्हा ही ये बेहतर जानता है ।।

कैसा बीता है शरद और ग्रीष्म बरखा।
मुझसे बेहतर घर का छप्पर जानता हैं।।

कैसे कटती हैं मेरी तन्हा सी रातें ।
खाट तकिया और बिस्तर जानता है।।

दर्द के किस दौर से गुजरा हुआ मैं।
आह का निकला ही अक्षर जानता है।।

आमोद बिंदौरी , मौलिक अप्रकाशित

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Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on May 29, 2018 at 8:41am

आमोद बिंदौरी जी सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत बधाई

Comment by amod shrivastav (bindouri) on May 28, 2018 at 1:02pm

आ महेंद्र सर हौसलाअफजाई का बहुत आभार ..

सर मेरा मानना है कि है हूँ मैं ही से यूँ क्यूँ पे के कर ये भरती के शब्द हैं  जोबहर में करने के सहायक हैं बस 

2 no है ...तकाबुल रदीफ़ हो जाता सायद 

शारद, ग्रीष्म, बरखा तीन  है एक को क्यूँ छोड़ दूँ ।

हूँ मैं दोनों एक ही जगह को सूचित करते है 

Comment by Neelam Upadhyaya on May 28, 2018 at 11:33am

आदरणीय आमोद जी, बढ़िया गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by Mahendra Kumar on May 28, 2018 at 10:49am

बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीय आमोद जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. 

1. मतला स्पष्ट नहीं है या मैं समझ नहीं सका. 

2. किसका कितना पेट भूखा रह गया है 

3. कैसा बीता है शरद और ग्रीष्म कैसी

4. दर्द के किस दौर से गुजरा हुआ हूँ
    आह से निकला ही अक्षर जानता है।।

सादर.

Comment by Ajay Kumar Sharma on May 24, 2018 at 12:42pm

सुन्दर रचना...

बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकार करें...

कृपया ध्यान दे...

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