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ग़ज़ल- फँस गया जाल में शिकारी खुद

बह्र- फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22

मार कर पेट में कटारी खुद।
मर गया एक दिन मदारी खुद।

अपने कर्मों से वो जुआरी खुद।
हो न जाये कभी भिखारी खुद।

पड़ गये दाँव पेंच सब उल्टे,
फँस गया जाल में शिकारी खुद।

आगये दिन हुजूर अब अच्छे
दान देने लगे भिखारी खुद।

हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,
पर चलाते हैं वो कलारी खुद।

खानदानी हुनर है बच्चों में,
सीख लेते हैं दस्तकारी खुद।

कर्ज बेटा चुका न पाया तो,
वो चुकाने लगे उधारी खुद।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on April 17, 2018 at 9:48pm

आ0 सर लाजवाब प्रस्तुति हेतु बधाई 

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 8, 2018 at 5:28pm

आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपको ग़ज़ल पसन्द आई एवं उत्साह वर्धन किया पुन: धन्यवाद।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 8, 2018 at 5:26pm

आदर्णीय  श्यामनारायण वर्मा जी गज़ल पसन्दगी केलिये सादर आभार

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 8, 2018 at 5:25pm

आदरणीय हर्ष महाजन जी बहुत बहुत शुक्रिया ग़ज़ल पसन्द करने एवं उत्साह वर्धन के लिये।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 8, 2018 at 1:43pm

वाह बढ़िया सरस ग़ज़ल कही है आदरणीय..सादर

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 7, 2018 at 8:10pm

आदर्णीय नीलेश जी ऐसा कभी कभी हो जाता है। मुझसे भी होता है। मुझसे बह्र में भी गल्ती हो जाती है और ओपेन बुक्स आन लाइन में विद्वान सदस्य त्रुटि दूर कर देते हैं। आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।

Comment by Shyam Narain Verma on April 7, 2018 at 11:34am
वाह ! बहुत खूब | सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 11:11am

वाह !!

आदरणीय राम अवध जी, अच्छी गजल के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 6:58am

आ. राम अवध जी,
आप की तक्तीअ बिलकुल ठीक  है ..मिसरा भी बहर में है..मेरे समझने में कोई भूल हुई इ..
मैं क्षमा सहित अपना कमेंट वापस लेता हूँ..
सादर 

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 7, 2018 at 5:05am

आदर्णीया नीलम उपाध्याय जी ग़ज़ल पसन्दगी के लिये सादर आभार।

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