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कल  का  जंगल  ...

खामोश चेहरा
जाने
कितने तूफ़ानों की
हलचल
अपने ज़हन में समेटे है

दिल के निहां खाने में
आज भी
एक अजब सा
कोलाहल है

एक अरसा हो गया
इस सभ्य मानव को
जंगल छोड़े
फिर भी
उसके मन की
गहन कंदराओं में
एक जंगल
आज भी जीवित है

जीवन जीता है
मगर
कल ,आज और कल के
टुकड़ों में
एक बिखरी
इंसानी फितरत के साथ

मूक जंगल का
वहशीपन
जाने क्यूँ
आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के
कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल  का  जंगल
छोड़ जाता है

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:44pm

आदरणीयलक्ष्मण रामानुज लाडीवाला जी  प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह देना का हार्दिक आभार।  आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:43pm

आदरणीय समर कबीर साहिब  प्रस्तुति अपने स्नेहिल शब्दों से अलंकृत करने का दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 12:42pm

आदरणीया अर्पणा शर्मा जी प्रस्तुति  अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का  दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं।  त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ। 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 27, 2016 at 1:09pm


मूक जंगल का वहशीपन 
जाने क्यूँ आज भी 
आदियुग के दावानल में 
रिश्तों को झुलसाता है 
अपने आज पे 
बीते कल को दोहराता है 
आदमीयत के कैनवास को 
नफरत की कालिख़ से 
सजाता है 
आज के हर पायदान पे 
कल  का  जंगल 
छोड़ जाता है | ---- आदमी के अन्दर के इस वहशीपन के कारण ही कई बार रिश्ते शर्म सार होते रहे है | सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई श्री सुशील सरना जी  

Comment by Samar kabeer on October 26, 2016 at 5:02pm
जनाब सुशील सरना साहिब आदाब,वाक़ई आज भी इंसान के अंदर कहीं न कहीं उस वहशी पन की झलक देखने को मिल जाती है,जिसका ज़िक्र आपने अपनी कविता में बहुत ही ख़ूबसूरत तरीक़े से बिम्बों के माध्यम से किया है,इस शानदार प्रस्तुति के लिये दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Arpana Sharma on October 26, 2016 at 3:11pm
आदरणीय सुशील सरना जी - बिंब बहुत सुंदर बन पड़े हैं -
"मूक जंगल का
वहशीपन
जाने क्यूँ
आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के
कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल का जंगल
छोड़ जाता है"

बहुत बधाई ।
Comment by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 12:23pm

आदरणीय  Shyam Narain Verma   जी प्रस्तुति के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by Shyam Narain Verma on October 25, 2016 at 3:52pm
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर

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