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1212 1122 1212 22
तज़़्मीन बर ग़ज़ल जाँ निसार अख्तर

वो होंगे कैसे, सितम जिनपे मैंने ढाया था
कि मैं रुका न मुझे कोई रोक पाया था
थे अपने लोग मगर उनसे यूँ निभाया था
"ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था "

जमूद हूँ कि रवाँ हूँ मैं रहगुज़र की तरह
रुका कभी तो लगा वो भी इक सफ़र की तरह
दयारे गै़र में उभरा कुछ उस दहर की तरह
" गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था "

वो दिल फ़रेब मेरे ख़्वाब आज भी मुझको
हैं याद और बुझी आँखें वो गली मुझको
तेरे बगै़र जी लेंगे ये आस थी मुझको
"मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था "

मैं जी रहा था ग़मे आप में यहां कैसे!
फ़ुसूँ तेरा कि मैं आख़िर निकल गया ग़ै से
खुदा ने ख़ूब दी इश्वागरी तुम्हें वैसे
"शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस कमाल से तूने बदन चुराया था "

उदास आज फ़लक पे सितारे हैं सह़री
किसी की आह ख़ुनुक इस हवा में फिर उभरी
कि थी ये बात जो ये रात ख़ूब थी गहरी
" पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था "

ग़ै-निराशा, इश्वगरी - स्त्रियों का हाव भाव, जमूद-गतिहीनता

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shree suneel on June 8, 2016 at 10:23am
आदरणीय समर कबीर सर जी से विनम्र निवेदन है कि तज़मींन पर मेरे इस पहले प्रयास पर अपनी टिप्पणीयों से मार्गदर्शन करने की कृपा करें. सादर.
Comment by shree suneel on June 8, 2016 at 10:06am
तज़मींन पर मेरे इस प्रयास की सराहना के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज सर जी. सादर
Comment by shree suneel on June 8, 2016 at 10:00am
शुक्रिया आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी. सादर.
Comment by shree suneel on June 8, 2016 at 9:59am
तज़मींन पर मेरी पहली कोशिश की सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी. सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2016 at 8:25am

आदरणीय श्री सुनील भाई , लाजवाब तज़मीन हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

Comment by maharshi tripathi on June 7, 2016 at 5:06pm
बढिया गज़ल हुई है,दाद कुबूल करें !!!!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 7, 2016 at 11:22am

वाह्ह्ह  सुनील जी बहुत ही  शानदार तजमीन की  है आपने दिल से  ढेरों  बधाई  लीजिये 

कृपया ध्यान दे...

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