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ग़ज़ल :शिकस्ता दिल है...

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शिकस्ता दिल है, रंजोग़म से ये क्योंकर उबर जाए
जज़ा ये है अब आँखों में ज़रा ख़ूँ भी उतर जाए.

हम एेसे सच्चे दिल का हैं ख़तावार आज ऐ यारो
कि चलने भी न संगे राह दे, तल्वीम कर जाए.

कहाँ कुछ बदले हैं हालात मेरे चंद सालों में
लकीरे दस्त पे कोई मेरे भीतर विफर जाए.

कदम इन कुर्सियों पे बैठ कर बस धुन हीं लेता हूँ
ये पा ए पीर क्या निकले भी घर से और घर जाए.

बहुत दिन एक से हालात में गुज़री ह़यात,अब तो
कोई लम्हा तसल्ली बख़्श हमको शाद कर जाए.

अभी बाकी है कू ए यार का तै़शो तमाशा देख!
दयारे इश्क़ से कैसे कोई यूँ हीं गुज़र जाए.

तल्वीम - मलामत करना, बुरा भला कहना

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shree suneel on June 3, 2016 at 1:31am
आदरणीय गिरिराज सर जी, ग़ज़ल तक आने.. इसकी सराहना और उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.

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Comment by गिरिराज भंडारी on May 29, 2016 at 8:40am

आदरनीय श्री सुनील भाई , बज़ल खूब खी है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

अभी बाकी है कू ए यार का तै़शो तमाशा देख!
दयारे इश्क़ से कैसे कोई यूँ हीं गुज़र जाए.   -- लाजवाब , बधाई इस शेर के लिये अलग से ।

Comment by shree suneel on May 28, 2016 at 2:01am
ग़ज़ल में शिर्कत व सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय बशर भारतीय जी. सादर.
Comment by shree suneel on May 28, 2016 at 1:59am
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय समर कबीर सर जी. सादर
Comment by Samar kabeer on May 26, 2016 at 12:25pm
जनाब श्री सुनील जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
Comment by बशर भारतीय on May 26, 2016 at 7:13am
अभी बाकी है कू ए यार का तै़शो तमाशा देख!
दयारे इश्क़ से कैसे कोई यूँ हीं गुज़र जाए.

बहुत बढ़िया वाह

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