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अभी जो देखकर गुज़रा हूँ रास्ते से
वो एक प्रतिछाया भर थी... वंचित जमाअ़त की.

एक दलित की बेटी
जो नहा रही थी
सड़क के किनारे गडे़ चापानल पर.

मुश्किल से गिरते पानी
और नहाने की शीघ्रता.
एक कुढ़न झेलती...
क्योंकि वह थी अर्द्धनग्न
चुभ रही थीं उसे आते-जाते
किशोरवय,अर्द्धवय लोगों की दृष्टियाँ.

बांस दो बांस की दूरी पे
उन दलितों के घर.
घर क्या...
आँगन और कोठरियाँ कुछ कुछ एक से
कहीं कहीं से फूस की धँसती छतें.

आँगन के एक कोने में 'चुभदी',
बच्चों के शौचकर्मार्थ.
और,
घुटने तक की मिट्टी की चहारदीवारी.

मतलब सबकुछ बेपर्दा...

कोठरी से लेकर आँगन तक
यौवन से लेकर जीवन तक.

पर्दे की अोट में है तो बस...
सरकार की 'इंदिरा आवास योजना'.

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by shree suneel on December 9, 2015 at 7:46pm
रचना को समय देने की लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शहजाद उस्मानी जी. सादर.
Comment by shree suneel on December 9, 2015 at 7:43pm
शुक्रिया आदरणीय सुशील सरना सर जी. सादर.
Comment by shree suneel on December 9, 2015 at 7:40pm
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. सादर
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 9, 2015 at 2:07am
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ आपको आदरणीय श्री सुनील जी
Comment by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 12:59pm

इस प्रस्तुति   के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 11:05am

इस रचना के लिए हार्दिक बधाईl

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