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आदरणीया नेहाजी, आपकी प्रस्तुति ने मुझे वाकई प्रभावित किया है. हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ
मुझे जीना ही होगा (संकल्प)
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"सऽऽऽर.. ! सर्जेण्ट कांबळेऽऽऽ !.. होश में रहियेऽऽ.. सर प्लीज़... शरीर मत छोड़ना.. "
लांसनायक गोडबोळे बमों की लगातार होती धमक और गोलियों की लगातार होती तड़तड़ाहटों के बीच एक सुर में चीखे जा रहे थे. सर्जेण्ट कांबळे नीम बेहोशी में थे. लांसनायक गोडबोले सर्जेण्ट को होश में रखने के लिए हर संभव उपाय कर रहा थे. गोली सर्जेण्ट की दाहिनी पसलियों को चीरती हुई बाहर निकल गयी थी. दूसरी ठीक बायें कंधे में आ धँसी थी. ढेर सारा ख़ून निकल चुका था. गोडबोले ने पूरा दो क्वार्टर उसके घावों पर उड़ेल दिया था. वे गड्ढे से बाहर आये. सर्जेण्ट को खंदक तक खींच ले जाना ज़रूरी था. सो गड्ढे से बाहर निकल कर सार्जेण्ट के लसर गये शरीर को खींचने लगे.
ठिचिक्क !
एक भेदती हुई गोली लांसनायक गोडबोले की गर्दन में धँस गयी. बग़ैर एक शब्द बोले गोडबोले वहीं ढेर हो गये. सर्जेण्ट के शरीर पर निढाल !
इधर आकाश लाल होने लगा था. सर्जेण्ट कांबळे के शरीर में हरकत हुई. उसे अपने ऊपर लांसनायक गोडबोले के शरीर का बोझ महसूस हुआ. कांबळे के लगातर ’जागते’ मन में एक-एक कर कई नाम उभरने लगे, पत्नी विद्यावती, नन्हीं मीनू, आठ महीने का उसका मुन्ना, बार-बार बीमार होती माँ. एक वही कमाने वाला ! उसके मन में विचारों के बुलबुले उठने लगे - ’अरे नहीं.. मुझे मरने का कोई अधिकार नहीं है ! एक मेरे न रहने भर से बाकी सभी मर जायेंगे.. मुझे जीना ही होगा.. मुझे जीना ही होगा !’
कांबळे को तभी अपनी तरफ़ आती हुई खोज़ी जीप की आवाज़ महसूस हुई. उसने गर्दन उठा कर उस ओर देखा. फिर उसने पूरी ताकत बटोर कर ज़ोर की चीख लगायी - ’हेऽऽऽऽल्प !..’
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(मौलिक और अप्रकाशित)
कभी ऐसा भी होता है कि जो भलाई करता है वो ही बोझ प्रतीत होता है, केवल सैनिक जीवन में ही नहीं वरन सभी के साथ| आपकी इस लघुकथा का तो एक एक शब्द पढने ही नहीं आत्मसात करने योग्य है आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सर| इस उत्कृष्ट सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें|
आदरणीय चन्द्रेशजी, प्रस्तुति को समय देने केलिए हार्दिक धन्यवाद. आपने ’बोझ; शब्द को अपने विचार से मायने दे दिये हैं. खैर, पाठक इंगितों को अपने अर्थ देने को स्वतंत्र होता है.
शुभ-शुभ
आदरणीया अर्चनाजी, आपने एक पाठक के रूप में मेरी रचना को समय दिया यही मेरे लिए आश्वस्तिकारी है. वैसे, राष्ट्र के प्रहरी के मनोबल को ऊँचा करने जैसी बात इस प्रस्तुति में नहीं थी. इस रचना में आपको ऐसा कुछ दिखा है तो वह मेरे प्रयास के अलावा ही है.
सादर
आदरणीया नीताजी, इसे ही घर चलाना कहते हैं. परिवार चलाना कहते हैं. यह राष्ट्रसेवा से कहीं अलग तरह का दायित्व है.
आपका हार्दिक धन्यवाद
पूरा दृश्य पढ़ते हुए एक चित्र चलायमान हो उठा। वो गोलियों की आवाज की तड़तड़ाहटें कानो में गूंजने लगी , आती हुई गोली जो गर्दन में लगी थी वो जैसे मन को विह्ल कर गयी। जीने की जरुरत का बेसब्री से साँसों के साथ जद्दोजहद और अपने बचाव के लिए पुरजोर कोशिश। एकदम से सन्न करने वाली एक क्षण विशेष आँखों के सामने छा गयी।
जिंदगी पर जब अपने से अधिक दूसरों का हक़ होता है तो मौत के लिए भी हम हकदार नहीं होते है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक लघुकथा का एक नए आयाम में पेश होना हम सबके लिए एक उचित मार्गदर्शन का श्रोत बनेगी। बधाई आपको इस सार्थक कर्म के लिए आदरणीय सौरभ जी।
आदरणीया कान्ताजी, आपने प्रयास के प्रभाव को महसूस किय , यह मेरे लिए भी संतोष की बात है. रचना को समय देने केलिए हार्दिक धन्यवाद
बहुत बढ़िया कथा आ. सौरभ पांडे जी। जीवन की व अपनों की ज़रूरतें जीने का संबल देती हैं। सरहद पर, युध्ध के माहौल में एक सैनिक की कशमकश व जिजीविषा का चित्रण करती भावपूर्ण कथा।
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