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जीवन उजड़ा नक्सल जैसा (गजल) -- मिथिलेश वामनकर

22---22---22---22

 

सूखा है, घर के नल जैसा

जीवन उजड़ा नक्सल जैसा

 

हुक्कामों से प्रश्न हुआ तो

उत्तर होगा बोझल जैसा

 

तेरे आगे मैं ठहरा हूँ

बिलकुल ड्रेसिंग टेबल जैसा

 

रिश्तों का आखेट हुआ है

घर लगता है जंगल जैसा

 

गम जाड़ों-सा हाड़ कंपा दे

भेजो सुख को कम्बल जैसा

 

सिर्फ मुकम्मल गज़लें लिखियें  

क्या होता है फुटकल जैसा ?

 

आप मुसाहिब बनिए भाई

अपना जीवन लोकल जैसा

 

कितना विस्तृत पापा का मन

बिलकुल बरगद पीपल जैसा

 

ख़बरों में फिर शोर हुआ है

सहमी टूटी पायल जैसा

 

लाख हुनर तो तुम दिखलाओं

हर दिन टीवी केबल जैसा

 

ढूंढ न पाया इक भी इंसा 

खोजी था मैं गूगल जैसा

 

देश बहुत ही छूटा पीछे

शब्द उठा जब अंचल जैसा

 

ले डूबेगा कितने ही घर

इस्टेटस ये सिंगल जैसा

 

डरता हूँ मैं उनका मुँह जब

होता बहते काजल जैसा  

 

बीज पकाकर खा जाते हो

होनें भी दो कोंपल जैसा  

 

कोशिश माज़ी से हटने की

खुद को पाया निष्फल जैसा

 

तुम आई, लगता जीवन में  

आया है कुछ संबल जैसा

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:36pm

आदरणीय दिनेश भाई जी, किसी भी प्रयास पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया  मेरे लिए सदैव उत्साहवर्धक हुआ करती है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:35pm

आदरणीय गिरिराज सर, रिवायती अंदाज़ से अलग नए काफियों के प्रयोग की हिम्मत की है, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:33pm

आदरणीय हर्ष जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:32pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल के इस प्रयोग पर  मुखर अनुमोदन और आत्मीय प्रशंसा पाकर मुग्ध हूँ. यह भी अवश्य है कि ऐसे प्रयोगों की स्वीकार्यता के प्रति भय हमेशा बना रहता है. किन्तु आपका विंदुवार विस्तृत अनुमोदन और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:29pm

आदरणीय पंकज जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:28pm

आदरणीय मनोज भाई जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 3:27pm

आदरणीय सुशील सरना सर, ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.

Comment by दिनेश कुमार on September 2, 2015 at 9:48pm
एक से बढ़कर एक क़ाफ़िया... क्या बात है भाई मिथिलेश जी। बहुत ख़ूब। असरदार ग़ज़ल।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2015 at 4:43pm

आदरनीय मिथिलेश भाई , छोटी बहर मे अच्छा प्रयास हुआ है , गज़ल के लिये आपको  हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Harash Mahajan on September 2, 2015 at 4:30pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी छोटी बहर में आज फिर एक और बढ़िया ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें -----

"लाख हुनर तो तुम दिखलाओं

हर दिन टीवी केबल जैसा"...वाह क्या बात है........रोज़ मर्रा के प्रश्न

दिली दाद !! सादर !!

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