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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-3 में स्वीकृत लघुकथाएँ

(1) सुश्री राजेश कुमारी जी 
बंधन लघु कथा
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“सुनती हो! अपने  दोस्त अखिल ने  भी अमेरिका की कंपनी ज्वाइन कर ली है अगले महीने शिफ्ट हो जाएगा सपरिवार|  सोचता हूँ मैं भी अप्लाई कर ही दूँ यहाँ क्या रखा है इण्डिया में, बच्चों की जिंदगी बन जायेगी वहाँ जाकर” |
“पापा टोमी को भी ले चलेंगे” पास बठे मिंटू ने उचक कर कहा| “नहीं इसे चाचा के पास छोड़ देंगे”पापा बोले|  “और मेरा मिठ्ठू पापा”?पिंकी ने पूछा | “उसको आजाद कर देंगे बहुत दिनों से कैद है बेचारा”|
“कैसे जायेंगे जी इतना आसान है क्या? हमारे साथ एक दो बंधन थोड़े ही हैं” तिरछी नजरों से कौने में बेड पर लेटे ससुर को देखते हुए धीमे से कहती हुई सीमा अन्दर चली गई |
अचानक सहस्रों लम्बे लम्बे काँटे ससुर के बिस्तर में उग आये|
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(2). श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी 

बंधन  [ लघु कथा ]

 .

पचास वर्षीय बेटे की असामयिक मृत्यु से कामता प्रसादजी स्तब्ध हो गए। हर किसी से कहते - एक अभागा पिता ही बेटे की शव यात्रा में शामिल होता है। 

शव यात्रा प्रारम्भ होते ही बूंदा बांदी शुरू हो गई।

राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है । राम नाम ......... ।

“ समीर बेटे तुम तेज चलो तो सब चलेंगे।”

“ जी दादाजी ।”

नगर से बाहर निकलते ही मोटी- मोटी बूंदों के साथ हवा भी तेज हो गई।

अचानक पीछे से आवाज आई ..... “ दादाजी लाश में हलचल हो रही है ।”

फिर एक साथ कई आवाजें - “लगता है समीर के पापा जी उठे ।”

“ देखो बेटों लाश जमीन पर नहीं रखते, बस थोड़ा झुक जाओ हम लोग देख लेते हैं।”

कुछ देर बाद ही दादाजी ने घोषणा कर दी - बेटे हरिशरण की मृत्यु नहीं हुई, इसे तत्काल चिकित्सा

सुविधा उपलब्ध कराना जरूरी है।

इस बार सब खुश होकर एक साथ बोल उठे - राम नाम सत्य है ..... ।

समीर बेटे यहीं से घूम जाओ घर की ओर।

सब बड़े उत्साहित थे। राम नाम सत्य है, सत्य बोलो ......।

“ देखों बेटों अब यह जीव बंधनों से मुक्त नहीं है। जिसे कांधा दिये हो वह लाश नहीं अब एक जीवित मानव शरीर है, किसी का पति है, पिता है, बेटा है और यह भी सच कि वह फिर सांसारिक बंधनों में फँस गया। हमारे लिए यह खुशी की बात है इसलिए अब कोई नहीं कहेगा राम नाम सत्य है ....।”

“ किंतु दादाजी राम का नाम तो .... ।”

“ कोई किंतु परंतु नहीं, बस मौन रहो, तेज चलो ।”

दादाजी की बात शायद समीर के दोस्तों के गले उतर नहीं पाई, वे जोश में थे ... राम नाम सत्य है, सत्य बोलो ...... ।

दादाजी भड़क उठे - “ खुशी के मौके पर राम नाम सत्य है बोलने का बहुत शौक़ है न तो एक दूसरे की शादी में खूब बोलना । सात फेरों के समय, वधू की बिदाई के समय और जब जी चाहे बोल लेना पर इस समय नहीं।”

दोस्त आपस में फुसफुसाते हुए ... राम का नाम लेने में भी समय और परिस्थिति का बंधन !!!
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(3). सुश्री कांता रॉय जी 

रक्तिम मंगलसूत्र ( विषय - बंधन )
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आधी रात को चुपके से सिरहाने के नीचे रखा सोने का मंगलसूत्र निकाल अपने हथेली पर रख देखने लगा । खिड़की की झिडी से आती चाँदनी में सोने का मंगलसूत्र झिलमिला उठा था । आज पहली बार बडी हिम्मत करके बडी़ बिन्दी वाली औरत के गले से छीन कर भागा था । नहीं मालूम था कि कितना तेज दौड़ने से वो बच निकलेगा ।पकडे जाने का डर बना हुआ था । पसलियों और कंधों को मजबूती से दृढ़ कर भाग रहा था । घंटों दौड़ने के बाद भी वह रूकना नहीं चाहता था । पहली बार मंगलसूत्र जो छीना था उसने ।बडी़ सी बिंदी वाली के माँग में सिंदूर दमक रहा था । उसने बस माँग भर देखा था सिंदूर से भरा हुआ ,चेहरा नहीं देखा था उसका ।हाथ में रखे मंगलसूत्र की कटोरियों में अचानक उसके माँग का सिंदूर भर गया ....वो सहम सा गया । गीला गीला सा कुछ रिसने लगा था गलसूत्र की कटोरियों से । उसके हाथ अब काँप रहे थे । काली मोतियों की लड अचानक बढने लगीं । बढते - बढते गले तक जा पहुँची । बंधन कसने लगा था । उसका दम अब घुट रहा था । चाँदनी भी लाल हो गई , उसी माँग के सिंदूर सी । सहसा लाल रंग खून के रंग में बदलने लगा । हाथ में मंगलसूत्र लिए , बंधन से जकड़े गले के साथ ..घर से बाहर निकल कर वह अब फिर से दौड़ने लगा ...अपने पसलियों और कंधों को मजबूती से दृढ़ करके ।
भागते - भागते पौ फट चुकी थी और वो पुलिस स्टेशन में जाकर पस्त हो गिर पडा़ ।सिंदूर में डूबा हुआ गीला चिपचिपा रक्तिम मंगलसूत्र के बंधन से अब वह आजाद हो जेल की कोठरी में सुख की नींद ले रहा था ।
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(4). श्री गिरिराज भंडारी जी 
बंधन
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भैंस-कोठे में साँकल से बन्धी भैंस ऊँधते हुये बैठी है , पास ही आंगन में एक बच्चा कुत्ते के साथ एक गेंद के ले के खेल रहा है । कुत्ता दौड़ रहा है आंगन के इस सिरे से उस सिरे तक गेंद पकड़ने के लिये। ऐसे ही खेल में एक बार गेंद भैंस तक पहुँच जाती है , कुत्ता भी तेज़ी से भैंस तक पहुँच के गेंद मुँह दबा के जैसे ही पलटा,
भैंस बोली ‘’ मेरे तो गले में चैन बन्धी है , मै तो मज़बूर हूँ , तुड़ा के भाग नहीं सकती , तू क्यों खुला रह के भी नहीं भागता अपनी मर्ज़ी की जगह , क्या तुझे आज़ादी प्रिय नहीं ‘’ ?
 ‘’ तू नहीं समझेगी , आखिर भैंस जो ठहरी , तुझे मेरे बंधन दिखायी भी नहीं दे सकते । मेरे बन्धन तो लोहे के साँकल से भी जियादा मज़बूत हैं , बस दिखते भर नहीं , प्रेम और स्वामी भक्ति के बंधन केवल महसूस किये जाते हैं । ये वो बन्धन हैं जिनसे दूर भागने की कोशिश भी की तो ये और भी तीव्रता से पास खींचता है “
’’ अपना मुँह बन्द रख , अभी बच्चे के साथ खेल रहा हूँ , देखती नहीं वो मै कितना खुश हैं ‘’ कुत्ते ने जवाब दिया , और गेंद ले के पलट के दौड़ा बच्चे की तरफ ।
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(5). श्री विनोद खनगवाल जी 
बंधन (लघुकथा)
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"सतनाम जी, मेरा आखिरी प्रणाम ले लीजिए। कल बच्चों ने वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी कर दी है।"- पार्क में साथ बैठे मित्र से श्यामलाल ने रुआंसे स्वर में कहा।
"क्या बात तुम्हारे कोई बेटी नहीं है क्या?"
"नहीं, अगर होती भी तो?"
"बेटियों वाले वृद्धाश्रम कभी नहीं जाते हैं।"
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(6). सुश्री सीमा सिंह जी 
बंधन - लघु कथा
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“जीजीSSSS” मिताली की ज़ोरदार चीख से पूरा घर गूंज गया. मंदिर से वापस आती मानवी ने भी बहन की पुकार सुन ली थी. भागती सी मिताली के कमरे की ओर बढ़ी. “क्या हुआ मिताली? तू ठीक तो है…”.
“जीजीSS”, बस इतना कह कर बहन के गले लग मिताली फूट-फूट कर रोने लगी.
“हुआ क्या ये तो बता? ”, मानवी ने पूछा.
“जीजी मेरी पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई तो अचानक लगा जैसे मेरे ऊपर सांप जैसा कुछ रेंग रहा है. मैंने हड़बड़ा कर हटाना चाहा तो... जीजाजी का हाथ था...” सुनकर मानवी के चेहरे पर कई रंग आए और चले गए.
मिताली ने अपनी बहन का हाथ पकड़ कर कहा, “जीजी जीजाजी सही नहीं हैं, आपने बहुत गलत इंसान से शादी की है...”
स्वंय को संयत करते हुए मानवी बोली, “धत पगली इतनी सी बात! मैंने तुझे कभी बताया नहीं? तेरे जीजाजी को नींद में चलने की आदत है...”
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(7). श्री शुभ्रांशु पाण्डेय जी 
बन्धन
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“अरे बेटा तुम चिन्ता मत करो. शादी में किसी चीज की कमी नहीं होने देंगे हम, दान-दहेज जितना तुम सोचोगे उससे कहीं ज्यादा ही देंगे.” कहते हुये लड़की की माँ ने एक उड़ती हुई नजर लड़के के सहमे हुये गरीब पिता पर डाली और उनकी हैसियत का आकलन कर दिया.
लड़की के दोनों हाथों में नेल-आर्ट किये हुये लम्बे नाखून और काफ़ी नीचे से पहनी हुई साड़ी उसकी माँ के कहे अनुसार लडकी के कामकाजी  --और सीधी भी--  होने का प्रमाण ही तो दे रही थीं !
“वैसे भी तुम डेप्युटेशन पर एक साल के लिये स्टेट्स जा रहे हो. वहीं सेटल कर जाओ. कौन लौटना चाहता है वहाँ से ? हम भी सपोर्ट कर देंगे..”
ऐसा लग रहा था जैसे लड़के के भविष्य का निर्धारण पहले से ही किया जा चुका हो.
लड़के का तो पता नहीं, पर उसके पिता को इस भावी रिश्ते का बन्धन, ’बन्ध.. न !’ की चेतावनी देता हुआ ज्यादा लग रहा था.
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(8). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी 
अपवित्र बंधन की साक्षी
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"तुमसे प्रेम करने लगी हूँ"
"लेकिन तुम्हारा पति जो है"
"जो रोटी तक कमा नहीं सकता, उसके गठबंधन से बढ़कर तुम्हारे प्रेम का बंधन है"
चूल्हे की अग्नि जलाने में उसके विवाह के वचन और मन्त्र दोनों स्वाहा हो गये|
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(9). श्री सौरभ पाण्डेय जी 
बन्धन (लघुकथा)
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बाबा जब तक रहे बिना नागा हर पूर्णिमा की सुबह नदी के उस बरगद के पास जाते और एक ओर अलग झुक गयी डाल को देर तक हथेलियों से महसूस करते. जाने क्या देर तक बतियाते रहते. सूरज चढ़े पर कोई लिवा ले जाता - "बाबा.. बहुत देर हो गयी.." 
बिना कुछ बोले बाबा लौट चलते. 
तब बाबा हर पूर्णिमा की अलस्सूबह दादीजी के साथ नदी पर आते थे. लौटते समय इसी बरगद की छाँव में कुछ देर रुकते. इस झुकी डाल की टेकन लेकर कहाँ-कहाँ की समस्याएँ सुलझायी जातीं. कुछ घर की, कुछ जग की. दादीजी खोलती जातीं. बाबा बान्धते जाते, समझाते हुए, कई बार झुंझलाते हुए, तो कई बार झिड़कते हुए भी. फिर वो दिन ! आखिरी बार दादीजी को यहीं रखा गया था, इसी बरगद के नीचे. तब तेज़ दुपहरिया थी. बरगद की इसी डाल से बाँध कर चादर फैलायी गयी थी.
नन्हकुआ कहता है, बाबा जब झुंझलाते हुए वहाँ झिड़की देते थे तो दादीजी भी आ जाती थीं, उनकी झिड़की सुनने. पता नहीं सच क्या है.
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(10). श्री जवाहर लाल सिंह जी 
क्रिकेट का बंधन (लघुकथा)
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शर्मा जी, पेपर का हर कोना बड़े ध्यान से पढ़ते हैं. समाचार भी देखते-सुनते हैं. समसामयिक गतिविधियों पर खूब नजर रखते हैं. अचानक बोल उठे - अरे ‘योग’ तो ‘योग’ है ही, पर यह ‘क्रिकेट’ भी कितने लोगों को आपस में ‘बाँध’ कर रखता है! 
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(11)श्री मनन कुमार सिंह जी 
कलकत्तावाली(लघुकथा)
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जनक पंडितजी के दरवाजे पर लगा जमघट लगा है।रास्ते के बगल का घर, आते-जाते लोग ठहर जाते,भीड़ बढ़ती जा रही थी।हुआ यह कि पंडितजी की भावज कलकत्ता से अपने देवर के संग आयी है।अचरज की बात है कि उसके माथे पर बिंदी और सिंदूर,हाथों में लाल-लाल चूड़ियाँ सुशोभित हैं।हाल ही में उसकी माँग धुली थी,कृपाल बाबा(उसके पति)स्वर्गवासी हुए थे।इतना ही नहीं,मुँह का पान उसके जामुनी रंग पर अपनी ललाई बिखेरने को आमादा था। श्याम वर्ण थुलथुल शरीर,चटकदार छापवाली साड़ी और ऊपर से मुँह में पान,यह था पंडिताइन का रोब।
लोग कुछ मसखरी करते,कुछ समय का हवाला देते अपने रास्ते निकल जाते।काकू के दरवाजे पर गाँव की औरतें उलहनाभरे अंदाज में बातें कर रही थीं।
-देखा,आ गयी कलकत्तावाली यहाँ भी रंग दिखाने? उधर ही मरती-डूबती।'भीखू की नानी बोली।
-अरे हाँ,सुना है जनक जी के दरवाजे पर मजमा लग गया है,बाबा की सब शास्त्र-विद्या अभी फेल है,जुबान बंद किये टुकुर-टुकुर सब देख रहे हैं बस।'काकू बोलीं।
-सुना कि किसीने मुँहझौंसी से कहा कि इसकी क्या जरुरत थी तो बोली कि पंडित जी कहकर मरे थे कि छोटकू पर रह जाना।इसमें बुराई क्या है?अब लोग कहेंगे कि माँग धुलवा लो,फिर सुहाग सजा।अरे मैं बिन सुहाग हुई कब?पहले पंडित जी,अब छोटे जी;मेरी तो सुहाग-रेखा लगातार बरक़रार है।कोई बंदिश है क्या?'रधिया की बुआ बोली।
गाँव की सारी औरतें थू-थू कर हिकारत व्यक्त कर रही थीं।
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(12). श्री तेजवीर सिंह जी 
बंधन
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"बाबू जी , मुझे इस बंधन से मुक्ति  दिला दीजिये,  आप तो तलाक़ के मामलात के शहर  के सबसे बडे वक़ील हो"!
"सुधा ,तुम मेरी पुत्र वधू से ज़्यादा मेरी बेटी हो,मेरे मित्र की आखिरी निशानी हो,मैंने खुद आगे हो कर तुम्हारा रिश्ता मेरे बेटे के लिये मांगा था"!
"आप अच्छी तरह जानते हैं कि सुधीर ने मुझे कभी भी स्वीकार नहीं किया, वह पहले से ही रजनी को प्यार करता था,अब तो वह यह घर भी छोड गया, आखिरी उम्मीद भी खत्म "!
"सुधा ,सुबह का भूला शाम को घर  वापस आता है,वह भी तुम्हारे पास ज़रूर वापस आयेगा"!
"बाबूजी, वह मेरा तो कभी था ही नहीं ,तो वापसी का प्रश्न कहां से आया"!
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(13). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
संकल्प का बंधन
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स्वदेशी के प्रति दृढसंकल्पित मोहन ने एक दुकान में देशी झालर की तरफ इशारा करते हुए पूछा -
“क्या हिसाब दी ये झालर ?“
“बाबू जी १०० रूपये पीस ”
“ठीक ठीक रेट लगाओ भाई, इतनी महंगी.. ?“
“बाबू जी ये वाली ले जाओ ५० रूपये की है और फंक्शन भी ज्यादा है “ दुकानदार ने एक चायनीज झालर सामने जला कर दिखाते हुए कहा |
“नहीं मैं तो अपने देश वाली ही ...” वाक्य पूरा भी न कर पाया था कि मोबाइल थरथरा उठा |
“सुनो जी मुन्ने के लिए पटाखे भी लेते आना “ पत्नी याद दिलाते हुए कह रही थी |
बटुए की फटी तहों के बीच दुबके सौ सौ के तीन चार गुड मुड़े नोटों ने उसके स्वदेशी के संकल्प को हिला दिया | कसमसाते हुए चायनीज झालर खरीद कर अब उसके कदम चायनीज पटाखों की दुकान की तरफ मुड चुके थे |
“बाबू जी चायना आइटम है..चल जाय तो चाँद तक, नही तो शाम तक ...” वही दुकानदार अब एक अन्य ग्राहक को दो दिनों में ही फुस्स हुई झालर को वापस लेने से मना करते हुए समझा रहा था |
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(14). सुश्री बबिता चौवे जी 
बंधन
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ओहो !!..."रुको ड्राइवर "
क्यों मेडम ???."क्या हुआ ब्रेक लगाते हुये बोला।"
"अरे !!!ये मेरी नानी का गांव है।थोडा रुको मै उतरती हूँ और आगे जाकर देखा सन्नाटा इतना क्यों है ।कोई नही दिख रहा।एक माँ जी दूर से घास लेकर आ रही थी।"
"माँ जी यहाँ के लोग कहा है इतनी शांति क्यों है कहा गये सब!!!..."
"माँ बोली कौन हो बेटा तुम.?? यहाँ अब कोई नही रहता ।जबसे सूखा पड़ा है तबसे पूरा गांव दिल्ली काम को गया है।कुछ लोग ही है बुड्ढे जिन्हें काम नही वो ही रहते है।"
ओह!!!." माँ जी में मिश्रा जी की नातिन हूँ ।आज विजिट के लिये आई थी ।पर दुःख हुआ ।"
"मेरा बचपन यही गुजरा बो लहलहाते खेत ,वो बोलती पगडण्डी, वो खजूर, बो खट्टी इमली, वो कच्चे आम, सब याद आ गये।"
पर अब केवल केवल सन्नाटा उफ़ .!!बेहद दर्दनाक है ये
"माँ की आँखों मै भी आँशु झलक आये ओह !बिट्टू है तू चल, बेटा घर चल में हूँ बही काकी जिसने तुझे मालिश करके बड़ा किया है।"
और मै उनके गले लग वहीँ एह्सास ढूढने लगी।
उफ़ ये भूख क्यों बनाई जिसके लिए गाँव ही उजड़ गए। इस भूख ने गांव ही निगल लिए......
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(15). सुश्री नीता कसार जी 
"बंधन"
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स्वर्ण आभूषणों क़ीमती कपड़ों की चकाचौंध से उसका रूप सौंदर्य दमक रहा था, स्वर्ग से अप्सरा उतर आई हो जैसे। और कोई होती तो मारे ख़ुशी से बावली हो जाती, पर नाम की लक्ष्मी का मन डूबा जा रहा था। लोग क़यास लगाने में उलझे हुये थे। पर कुछ जोड़ी अनुभवी आँखें युवती की मन, की मलिनता समझ रही थी पर मजबूर थी। उनके हाथ बँधे जो थे।
"तू जल्दी से तैयार हों जा लक्ष्मी, सरपंच के बेटे की बहू बनकर जा रही है बहुत खुश रहेगी।
सुनो न माँ ------ कुअें से डूबती आवाज़ से पुकारा लक्ष्मी ने । माँ लौटी नसीहत के साथ, 'रानी बनकर राज करेगी ' लाड़ों, कहकर माँ ने उसके गोरे,गोरे गाल थपथपा दिये, पर वे शर्मो हया के मारे लाल न हुये ।
'दुल्हन को बुलाओ, मुहुरत निकला जा रहा है'। पर उसका निर्णय अटल था
वह घर के पिछले दरवाज़े से निकल चुकी थी अपनी पसंद के साथ, प्रेमपथ पर, आज़ाद हो सारे बंधनों से ।
एक एेसी नदी जिसे कोई बाँध, बंधन मंज़ूर नही, अनवरत चाहती थी, उन्मुक्त हो निर्बाध बहना ।
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(16). सुश्री नेहा अग्रवाल जी 
"साँझा दर्द" (बन्धन)
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उफ्फ , आज फिर से सावन बरस रहा है ।साथ ही बरस रही है तुम्हारी यादें ।
वो कॉलेज में हमारा पहली बार मिलना धीरे धीरे दोस्ती में आगे बढना और फिर आयी यह अन्तहीन जुदाई कैसा बन्धन है जो टूटता ही नहीं आखों के गिरते सावन को अभी रोक भी ना पाई थी सुधा कि तभी ,
सास की तेज आवाज ने सुधा तो धरातल पर पटक दिया।
"कँहा मर गई करमजली, एक तो मेरा बेटा खा गयी उस पर दिन भर पडे पडे रोटियां तोडती रहती है।"
"आ रही हूँ मां जी यह लीजिए आपका नाश्ता और आफिस से आते वक्त मैं आपकी दवाई लेती हुई आऊगी।"
"मां जी आप मुझ पर जितना चाहे गुस्सा हो पर हमारा यह बंधन टूटने वाला नहीं।क्योंकि अब मैं आपकी बहू नहीं बेटी हूँ ।और यह दर्द हम दोनो को सांझा है ना।
और फिर समीर के प्यार भरी यादों में भीगती सुधा चल पडी मजिंल की तलाश में।
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(17). सुश्री ज्योत्सना कपिल जी 
बन्धन  
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संगीत उसके लिए श्वास की तरह आवश्यक था।कहते हैं की उसके कण्ठ में सरस्वती का वास था।जब गाती तो लोग सुध खोकर उसकी सुरलहरियों में डूब में जाते। चढ़ती उम्र के साथ माता-पिता वर सन्धान में जुट गए।
"हमारे घर में भांड मिरासियों की तरह गाना वाना नहीं चलेगा भले घर की बहुओं की तरह रहना होगा "
वर पक्ष की इस माँग के आगे पिता तुरन्त नत मस्तक हो गए। उसने शिकायती निगाह से पिता की ओर देखा।कोई प्रोत्साहन न पाकर जुबान पर ताला जड़ लिया। वो बन्धन स्वीकार करने के पश्चात उसने कभी कोई प्रतिकार नहीं किया।समय निकलता रहा और उसे दे गया आदर्श बहु,पत्नी और माँ का सम्मान। 
नया घर,दायित्वों से मुक्ति,प्रभात की बेला और दूर से आती बाँसुरी की मधुर आवाज़ ।वह सुध खो बैठी,धीरे-2 होंठ बुदबुदाने लगे।वर्षों बाद उसके सुर फिर वातावरण को तरंगित कर रहे थे।
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(18). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
बंधन
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देह व्यापार में लिप्त लड़कियों में उद्धमा को देखकर मैं हैरान रह गया I मैं कभी उसके इतने करीब रह चुका था कि उसे तो पहचानना ही था, मुझे देखकर वह चौंकी फिर उसने घबराकर आँखें नीची कर ली I तभी मुझे उद्धमा से अपनी आख़िरी मुलाक़ात याद आयी  I
‘रिद्धू , अब हमें शादी कर लेना चाहिए’
‘क्या यार तुम भी वही दकियानूसी बात लेकर बैठ गए I मैंने तुमसे प्यार शादी के लिए नहीं जीवन को खुशनुमा तरीके से जीने के लिए किया है I’
‘यू मीन तुम मुझे फ्लर्ट कर रही हो ?’
‘देखो यार, मैं आजाद पक्षी हूँ, खुले आकाश में उड़ना चाहती हूँ, बंधन मुझे स्वीकार नहीं है i’
‘मतलब शादी बंधन है ?’
‘बंधन ही नहीं, गुलामी भी है I यहाँ न जाओ, वहां न जाओ, ये न करो, वो न करो I आई डोंट बिलीव इन द इंस्टीच्यूशन ऑफ़ मैरिज I’
‘पर रिद्धू ,इससे जिन्दगी नहीं पार होगी I बचपना छोड़ो I ’
‘ह्वाट बचपना, मैं करके दिखाऊँगी I’
मैं इसी विचार में था कि कान्स्टेबल ने टोका – ‘स्साब वह नीले सलवार वाली लडकी ज्यादा ही रो रही है, कहिये तो दो लगाऊं स्साली को ?’
‘नहीं तुम रुको, मैं देखता हूँ I अभी उसके बंधन खोल दो I’
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(19). सुश्री रीता गुप्ता जी 
बंधन  ..... शेष  है 
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पाकिस्तान से एक हाई कमिशन टीम दिल्ली आई हुई थी क्षेत्रीय रिश्तों को मजबूत करने .दुनिया भर के पत्रकारों की नजर थी .एक से एक खुर्राट बुड्ढे थे इस द्विपक्षीय वार्ता में .वार्ता नाकामयाब होनी थी सो हो के रही . लन्दन के एक पत्रकार ने अपने पत्र  के लिए भेजा .
"हमारे पूर्वजों ने बिलकुल सही किया इन्हें बाँट कर ,ये वास्तव में दो अलग अस्तित्व हैं "
तभी दोनों दल के सदस्य पास से गुजरें ,अस्फुट बातें कान में आ रहीं थी ......
"रामप्रसाद जी ,कराची से  आपके दादा जी के पडोसी ने आपकी पुत्रवधू के लिए कुछ उपहार भेजा है ."
"बशीर साहब आज रात आपको घर आनी ही  होगी,अम्मा बिस्तर पर पड़ी हैं अपनी बहन के खून को देख शायद कुछ और जी जाएँ "
एक दूसरी आवाज, "मैं तो आज शाम ही पराठें वाली गली के श्री गया प्रसाद -शिव्  चरण के यहाँ जाऊंगा ,काका जी मरते दम उनके पराठों के स्वाद को याद करतें रहें " 
 .........  और भी कई आवाजें अंग्रेज की कानों तक पहुँच रहीं थी ,उसने अपने पत्र को फिर लिखा ,
"इतना बंटने के बाद भी कुछ तो बंधन आज भी शेष हैं जो  मानचित्र  और  सियासत से परे है . 
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(20). श्री राजेंद्र कुमार गौड़ जी 
बन्धन
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सरिता आज बहुत उदास थी, सुबह से ही उसको बैचेनी ने घेर रखा था। बीमार भी नही थी, लेकिन कोई काम करने को मन ही नही हो रहा था, क्यो हो रहा है ये सब वो सोच सोच कर हार गई, कोइ कारण दिमाग मे आ ही नही रहा था। हार कर अपने ओफ़िस फोन किया, आज वो नही आ रही तबियत ठिक नही है। अपने घर से इतना दुर अकेले रह कर पुरे परिवार के लिए आय का साधन थी,
किन्तु मन मे कोई भी संशय नही था, अपना कर्तव्य पुरे मनोयोग से निभा रही थी। खाली बैठे उसने मन बदलने के लिए टेलिविजन खोला और अनमने मन से चैनल बदलने लगी, तभी उसे न्युज चैनल पर अपने शहर मे विस्फोट की खबर मिली, जिसमे १५ लोगो की मोत की खबर थी, वो सहम गई और मरे लोगो की लिस्ट देखने के लिए बैचेन हो गई। उसे उसकी बैचेनी का कारण मिल गया था, एक अन्जान बन्धन जो हमे अपनो से जोडे रखता है मे आये एक झट्के के कारण
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(21). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी 
लघु कथा    बंधन 
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"जाना पक्का ही कर लिया ?'
"हाँI  फिलहाल तो I"
"माना इस प्रोजेक्ट के चलते  तुम्हे समय नहीं दे पा रहा हूँ , पर माँ के पास चल देना ,ये तो बात नहीं बनी I"
"मेरी वजह से तुम काम में फोकस नहीं कर पा रहे हो ,  बंधन बन गई हूँ मै  तुम्हारे लिए I"
"क्यों कर रही हो ये बचपना ?"
"अरे i तुमने गैस पर दूध रखा था क्या ? मेरे पीछे घर का क्या हाल कर दोगे ये तो दिख ही रहा है I"
" रुको i  ओफ्फो  , नंगे  हाथों से पकड़ लिया न गर्म भगोना ,  पागल , लाओ  इधर  ठन्डे पानी में डुबो  दो I"
"छोड़ो i  मेरी टैक्सी आ गई शायद I"
"चली जाना , पर पीछे  से तुम्हारी चिंता में बंधा रहूँगा ,  ये तुम भी जानती हो I"
"सच ?"
और फिर भगोने  के ठन्डे पानी में उसकी आँखों से गिरता नमकीन पानी मिलने लगा , धीरे , धीरे I
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(22). श्री सुकेता त्यागी जी 
"बंधन"
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रोज की तरह आज भी वह चेहरा मायूस सा बैठा है पार्क की उसी कोने वाली बेंच पर।
"अम्मा सुनिए कृपया अन्यथा मत लीजियेगा, मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।
"अ..... बेटा मुझसे, पूछो।"
"जी मैं तक़रीबन हर रोज शाम को आपको ऐसे ही मायूस देखता हूँ, चेहरे पर वही चिरकालिक उदासी, खुद में खुद से बड़बड़ाते होंठ, आँखों के कोनों पर वही स्थायी आँसू....... क्यों? ऐसा क्या दुःख है आपको?"
"अ.... बेटा..... नहीं तो।" (अपने दोनों हाथों से आँसू पोंछ वह बड़बड़ाई)
"माफ़ कीजियेगा, मैं कदाचित बहुत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ बैठा आपसे, पर मैं आपके पुत्र समान हूँ, रोज आपको देखता हूँ इसलिए .......।"
"नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है बेटा..... वो बस अब इस बुढ़ापे में अकेले.......।"
"आपके परिवार में कोई नहीं क्या?"
"परिवार! है बेटा...... बेटा-बहू और मेरा पोता।"
पोता शब्द एक क्षण के लिए चेहरे पर मुस्कुराहट लाया, पर दूसरे ही क्षण हृदय की पीड़ से आँसू, आँखों के कोनों को छोड़ गालों पर पड़ी झुर्रियों में समा गए।
"क्या आपका बेटा आपकी ममता के अकाट्य बंधन को भूल गया।"
"नहीं बेटा वो बंधन नहीं भूला, माँ खुद बंधन जो हो गयी उसके लिए...... इसलिए बस बंधन याद रहा, माँ भूल गया।" 
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(23). सुश्री मीना पाण्डेय जी 
लघुकथा -बंधन
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"माँ ,ये रोज रोज का तुम्हारा अपमान ,अब और मुझसे नही देखा जाता ,भाभी दो बखत की रोटी के साथ कितनी जली -कटी भी परोसती है ,भैया भी अब कुछ नही बोलते , आखिर क्यों सहती हो तुम ! अब बहुत हो गया ,अब तुम मेरे साथ चल रही हो , बस !! "
माँ ने अपनी गोद में सोये तीन साल के पोते को देखा , सोते हुए भी उसका आँचल उसने अपनी मुट्ठी में कसा हुआ था ,माँ ने आँचल छुड़ा ,उसे बिस्तर पर आराम से सुलाना चाहा ,लेकिन वह कुनमुना कर गोद में ही और सिमट गया ,मुट्ठी का आँचल अभी भी कसा था I 
माँ ने उसके बालो को प्यार से सहलाया ,फिर बोली -
"ये थोड़ा बड़ा हो जाए , फिर सोचूंगी I "
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(24). श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी 
पहली दुश्मन
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"सो गयी क्या?"
"नही, नींद नही आ रही।"
"सो जाओ, सुबह हस्पताल जाना है।" पति ने एक नजर उसकी ओर देखा और सोने के लिये पीठ फेर ली।
"हूँ" कहकर वो भी सोने की कोशिश करने लगी।......
"माँ! तुम मुझे अपने से कयूं दूर करना चाहती हो?" कहीं अंदर से 'उसने' पुकारा।
"बेटी है ना इसलिये।" पति के शब्द ज्यों के त्यों जुबां पर आ गये।
"पर माँ, मैं आना चाहती हूँ तेरे पास।"
"क्या करेगी मेरी नन्ही परी इस दुनिया में आकर, यहाँ तो कदम कदम पर दुश्मन बैठे है।" अंतर्मन ने न जाने कितना गहरा सोच कर जवाब दिया।
"माँ तुमने भी इन दुश्मनो से संघर्ष किया है।" एक मासुम सा सवाल पूछा उसने।
"हाँ मेरी बेटी मैने भी न जाने कितने दुश्मन, कितने बंधनो का सामना किया है। कुछ बंधन काटे भी और कुछ अभी भी बेड़ियां बन पैरो में पड़े है।" अपनी सारी विवशताओ को समेटते हुये उसने जवाब दिया।
"पर माँ अपने ही जिस्म के हिस्से को मुक्त करके मेरी पहली दुश्मन तो तुम ही बन बैठी ना। आने देती तो, कुछ बंधन तो मैं भी काट ही देती।" गहरी रात के अंधेरे में बेटी की बात पर अपने ही साये से उलझी गयी वो।
और सुबह होते होते वो एक और बंधन काटने का निर्णय कर चुकी थी, आखिर अपनी परी की पहली दुश्मन तो नही बन सकती थी वो।
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(25). श्री विनय कुमार सिंह जी 
वज़ह
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"अरे यार , तलाक़ क्यूँ नहीं दे देते उसको । इतनी परेशानियाँ झेल कर भी निभाए जा रहे हो "।
वो सोच में डूब गया , सच ही तो कह रहा है ये । 
"कहीं तुम समाज के चलते तो नहीं हिचक़ रहे , ये समाज भी कहीं किसी का भला करता है "। 
अचानक उसके आँखों सामने बेटी का चेहरा आ गया । 
"खैर, समाज का तो ठीक कहा तुमने, लेकिन जब तुम भी बेटी के पिता बनोगे तो समझ जाओगे "।
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(26). श्री हरी प्रकाश दुबे जी 
बंधन : लघुकथा
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शानदार फूलों से सुसज्जित मंच पर धर्मगुरु विद्यमान ,साथ ही भजन कीर्तन करने वाली भाड़े पर रखी गयी  टीम ,सामने लम्बा पांडाल , अति विशिष्ट भक्तों के लिए आगे सुन्दर सोफों की कतार ,पीछे दरी पर हाथ जोड़ कर बैठे भक्तजन , जगह –जगह एलसीडी ,साउंड सिस्टम , अब प्रवचन शुरू ..........
” आप सब के दुखों का कारण ही यही है की आप लोग तमाम मोह ,माया के बंधन में फसें हुए हैं,किसी को परिवार की चिंता है ,कोई धन के पीछे भाग रहा है ,अरे कुत्ते की तरह जिंदगी बना ली है आप लोगों ने अपनी, अरे मैं तो कहता हूँ यह  संसार ही एक बंधन है  ।“
इतना सुनते ही एक नव दम्पति उठकर खड़े हो गए और बोले “ तब उपाय क्या है स्वामी जी !”
“अरे गुरु की शरण में आओ, ईश्वर को समर्पित हो जाओ !”
“ठीक है गुरूजी अपना सब धन दौलत आपको समर्पित कर देतें हैं पर हमारे इस नन्हें बच्चे का भविष्य ..!”
“अरे उसकी चिंता मत करो अपना एक बहुत बढ़िया स्कूल है और आश्रम में तुम्हारी भी सब वयवस्था हो जाएगी!” .....इतना सुनते ही पांडाल ‘जय हो स्वामी जी’ की आवाज़ से गूँज उठा!
“पर स्वामी जी, अभी तो आपने कहा था की यह  संसार ही एक बंधन है , तो क्यों न हम सब इस संसार को ही त्याग दें ?”.....अब सन्नाटा छा गया और गुरूजी के चेहरे की लालिमा उनके क्रोध को स्पष्ट दर्शा रही थी !
नव दम्पति तुरंत उठकर बाहर चले गये ,बाहर खड़े पुलिस-कर्मियों ने उन्हें जबर्दस्त सलाम किया और एक अधिकारी बोला क्या आदेश है सर ?”
“अरे यह वही है ,कितने आरोप हैं इस पर ?”
“साहब ,हत्या ,बलात्कार ,धोखाधड़ी ..लिस्ट लम्बी है सर !”
“ठीक है , जब इसका नाटक खत्म हो जाए तो इसे बाँध कर लाना , मैं समझाता हूँ इसे बंधन...!”
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(27). सुश्री रेनू भारती जी 
लघु-कथा : सुरभि
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शारदा एकत्रित भीड़ को देखकर रुकी l
और वहां, एक व्यक्ति से पूछा - ये लोग यहाँ क्यों जमा हुए है ?
कैलाश इशारा करते हुए - वहां कपडे में लिपटी एक बच्ची मिली है , उसे देखने की कोशिश रहे है ;
ये यहाँ कहाँ से आई हैं l और किसकी है ?
शारदा आगे बड़ी और उसने बच्ची को देखा और गोद में उठा लिया l
बच्ची भोली सी , प्यारी और आकर्षक थी l
शारदा उस बच्ची को घर ले आई l
और ६ बर्षीय सुगम ने पूछा - मम्मी , आप किसको घर ले आई हो ?
शारदा ने प्यार से हंसकर कहा - सुरभि है , तुम्हारी छोटी बहन l
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(28). योगराज प्रभाकर 
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लघुकथा "बंधन"
 
"आज वो दिन आ गया है बहादुरो, जिसका हमें बहुत देर से इंतज़ार था। हाई कमांड से हुक्म आया है कि दुनिया के इन आठ शहरों को बम धमाकों से दहला दिया जाये।" 
मेज़ पर पड़े नक्शों पर निशान लगते हुए कमांडर ने नौजवानों को संबोधित करते हुए कहा: 
"इन जगहों को गौर से देख लो, ऐसी तबाही मचनी चाहिए कि पूरी दुनिया हिल जाये।" 
"कमांडर साहिब, सात जगहों को तबाह करने के लिए तो हमारे विदेशी जाँबाज़ कब से तैयारी कर चुके है, लेकिन आठवें के बारे में तो कभी बताया ही नहीं गया था।"
"आठवाँ निशाना, हमारे सब से बड़े दुश्मन हिंदुस्तान का एक पवित्र शहर है, जहाँ तबाही मचाने का हुक्म आया है।"
"मगर इस काम के लिए तो किसी को तैयार ही नहीं किया गया है, फिर कैसे……?"
"एक नया रंगरूट है इस काम लिए, जो खुद हिंदुस्तानी ही है।"
"कौन वो नया लड़का लक्की ?"
"हां वही ! बुलायो उसे।" कमांडर में आदेश दिया। 
कुछ ही देर में एक सुन्दर नौजवान को कमांडर के सामने पेश किया गया।
"सुनो लक्की ! आज वो दिन आ गया जिसके लिए तुम्हें ट्रेनिंग दी गई है । हमें दुनिया के आठ शहरों में बम धमाके करने हैं। और तुम्हारे सुपुर्द हिन्दुतान को किया गया है।"
"हिन्दुस्तान ?"
"हाँ हिन्दुस्तान, और ये है वो शहर जहाँ तुम्हें धमाके करने है।" कमांडर ने नक़्शे पर उंगली रखते हुए कहा।   
"कमांडर साहिब, अगर आप कहें तो मैं दुनिया में कहीं भी तबाही मचा सकता हूँ, खुद को बम से भी उड़ा सकता हूँ। लेकिन हिन्दुस्तान का ये शहर ? नहीं नहीं ! मुझे कोई और जगह दे दीजिये।"
"मगर यह शहर क्यों नहीं ?"
"क्योंकि मेरे पुरखों की हड्डियां दफ़न हैं इस शहर में।"
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(29).सुश्री श्रद्धा थवाईत जी 
‘व्यक्तित्व विकास यात्रा’
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 रघु और रिया दोनों सुबह की सैर करते हुए बातें कर रहे थे.
“रिया! तुम्हें उन्हें मना कर देना चाहिए था.”
“पर वो बड़े हैं मैं उन्हें कैसे मना कर सकती हूँ.”
“दुनिया में लाखों लोग तुमसे बड़े हैं तो तुम उन सभी की बातें मानती रहोगी?”
“पर जिनको मैं जानती हूँ उन बड़ों की बातें तो मुझे माननी ही चाहिए. मैंने बचपन से यही सीखा है.”
“तो मानो सब की बातें. बचपन में सिखायी गयी सारी बातें मानती रहो, बिना अपना दिमाग लगाये और परेशान होती रहो.”
“ऐसे नाराज मत हो प्लीज़. उफ़! देखो, ये कांटेदार तार किस कदर पेड़ के तने में धंसा हुआ है. यह कितना दर्द दे रहा होगा पेड़ को.”
“ओह! यह पेड़ जब छोटा था तब किसी ने इसकी सुरक्षा के लिये लगाया होगा फिर निकालना भूल गया.”
“ देखो ना, पेड़ के बड़े होने के बाद वही सुरक्षा घेरा अब दर्द देने वाला बंधन बन गया है.” रिया ने पेड़ के तने में अन्दर तक धंसे कांटेदार तार को निकालने की कोशिश करते हुए कहा.
“यही मैं भी तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूँ. जब सुरक्षा घेरा बंधन बनने लगे तो उसे तोड़ना जरुरी होता है.”
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(30).श्री सचिन देव जी 
बंधन ( गर्म हवा..... )
देखो आरती हिम्मत रखो आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा, मेरी बात जरा ध्यान से सुनो, ईश्वर न करे अगर मेरा आपरेशन नाकामयाब रहा और मुझे कुछ हो जाये तो मेरे बाद मेरी बेटी का डॉक्टर बनने का जो सपना है उसे कभी मरने नही देना, हालांकि किडनी की इस गंभीर बीमारी ने हमारी सारी जमा पूँजी ही लूट ली, फिर भी हमारा पुश्तैनी मकान बचा है उसे गिरवी रखके बेटी के सपने को पूरा करना, और उसके बाद जो रकम बचे उससे संदीप की पाई-पाई चुका देना आखिर आज के जमाने मैं कौन सा दोस्त,  दोस्त के लिए इतना करता है, जितना संदीप ने मेरे इलाज के लिए किया है !   ...... किडनी बदलने के आपरेशन से पहले जाते हुए... राकेश ने भावुक होती अपनी पत्नी आरती को ढाढस बंधाते हुए ये बातें कहीं !  तभी  उसका दोस्त संदीप आपरेशन के लिए पांच लाख की आवश्यक राशि लेकर कमरे मैं दाखिल होता है उसके एक हाथ मैं कुछ सरकारी स्टेम्प भी हैं, रुपये आरती को थमाकर संदीप ने जेब से पेन निकाला और कागजात राकेश की ओर बढाते हुए कहा “ देखो राकेश बुरा मत मानना दोस्त, किन्तु मेरी भी कुछ मजबूरियां हैं, यदि आपरेशन के दौरान तुम्हे कुछ हो गया तो “  स्तब्ध  राकेश ने आरती की आँखों मैं देखा, जिनमें हस्ताक्षर करने का अनुरोध स्पष्ट था, राकेश ने भी नम आँखों से आरती की सजल आँखों का अनुरोध स्वीकार करते हुए हस्ताक्षर कर दिए, और ऊपर चलते पंखे को ताकने लगा जो अब अचानक से गर्म हवा फेंकने लगा था ........   
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(31). सुश्री पूर्णिमा शर्मा जी 
बंधन
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आज लाजो देर से काम पर आई,सोच कर बैठी थी कि आज निकाल बाहर करुँगी,यह रोज रोज की खिटखिट मुझसे नहीं होती !पहले स्कूल में 150 बच्चों से मगजमारी करो और थक कर सुकून पाने घर आओ तो गन्दा घर,फैला हुआ रसोईघर,सीले कपड़ों की बदबू से दिमाग भन्ना जाता है और इसे हमेशा एक नया बहाना ना जाने कैसे सूझ जाता है ?
पर लाजो पर निगाह पड़ते ही सन्न रह गयी,बिखरे हुए बाल,सूजे हुए गाल और आँख के समीप ही चोट जिसका खून पूरी तरह सूखा नहीं था अभी तक !समझ गयी वो (उसका पति ) आया होगा और महीने भर का वेतन ले कोख में उपहार दे मार पीट कर फिर रंगरेलियां मनाने अपनी नयी रखैल के पास गया होगा !
आज पूछ ही लिया,"महीने भर मरती-खपती है और वो तुझे बस पैसे के लिए रखे है ?तू छोड़ क्यों नहीं देती ? अपना पेट भर सकती है और मार से बचेगी !?
"कैसे छोड़ दूँ बीवीजी ? यह दिखावे का बंधन ना हो तो गली के भेड़िये .......?"
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(32). ई० गणेश बागी जी। 
लघुकथा : बंधन
नेहा और सलीम अपने प्यार को शादी के बंधन में बांधना चाहते थे, किन्तु नेहा के घर वालों को यह मंजूर नहीं था. अत: आनन फानन में उन्होंने नेहा की शादी अन्यत्र तय कर दी. इस बात का पता लगते ही नेहा और सलीम ने भाग कर शादी करने का निर्णय कर लिया. वे दोनों मौके की ताक में रहने लगे, किन्तु नेहा के परिवार वालों की सख्त निगरानी के कारण ऐसा संभव हो न सका, और नेहा आखिर एक दिन विवाह बंधन में बंध ससुराल आ गयी. शादी के कुछ दिन बाद ही सलीम का फोन आया..
“हेलो नेहा, मैं आज रात तुम्हारे घर के पीछे गाड़ी के साथ रहूँगा, तुम आ जाना हम यहाँ से कहीं दूर भाग चलेंगे”
“माफ़ करना सलीम अब मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती, और हाँ आज के बाद तुम फ़ोन नहीं करना.”
पवित्र अग्नि के समक्ष लिए गए सात फेरे अब उसे बहुत ही मजबूत लग रहे थे.
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(33). सुश्री शशि बांसल जी 
बंधन ( लघुकथा )
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"शीतु ! क्या तुम मुझसे विवाह कर खुश नहीं ? "
"ऐसा क्यों कहा आपने ? "
"क्योंकि नवविवाहिता की सी आतुरता , प्रतीक्षा , चमक , खिलखिलाहट कुछ भी तो नहीं टपकता तुमसे । "
"ये आपका भ्रम भी तो हो सकता है ।"
"हाँ , क्यों नहीं । वैसे आज दोपहर में कहाँ थीं तुम ? "
"जी ... सहेली के हठ पर रेस्तरां जाना पड़ा ।"
"हम्म् ! देखा था , तुम्हे भी और उसे भी । "
"क्या ...? "
"शीतु ! अतीत एक मीठी याद बन कर रह जाये, यही उचित है । अब पुरानी गांठे खोलनी है या नई जोड़नी, ये तुम्हे तय करना है।"
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(34). सुश्री सविता मिश्रा जी 
बंधन ~~ऐतवार ~~
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"मेरे शरीर का हर अंग मैं दान करती हूँ , बस आँख न लेना डाक्टर |" मरते समय शीला कंपकपाती आवाज में बोली 
"आँख !आँख क्यों नहीं , यही अंग हैं जिसकी जरूरत ज्यादा हैं लोगों को |"
"डाक्टर साहब,  ये मेरे पति की आँखे हैं |  मोतियाबिंद के कारण मेरी दोनों आँखें नहीं रही थीं  | हर समय दिलासा दिलाते रहते | हर वक्त मेरी आँख बन मेरे साथ रहतें |शरीर से तो वो मुक्त हो गये मुझसे, पर आँख दे गये |बोले इन आँखों में तुम बसी हो अतः अब ये तुममें ही बस कर तुमकों देखेंगी | इन आँखों को दान कर मैं उनके प्रेम से मुक्त नहीं होना चाहती | तभी मोबाइल बज उठा, ये प्यार का बंधन हैं ....रिंग टोन सुन डाक्टर मुस्करा उठे |
उठाते ही विदेश में रहने वाले बेटे की आवाज आई- "माँ,मैं आ रहा हूँ ! अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगा तुम चिंता न करो | "
"बेटा, आ जा जल्दी , पर अब डाक्टर की जरूरत नहीं |अब ये शरीर इस मोह के बंधन को तोड़ दैविक बंधन में बंधना चाहता हैं |" फोन कटते ही निश्चेत हो गयीं |
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(35). सुश्री माला झा जी        
बंधन(अनोखा बंधन)
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"भोला आखिर तूने अपनी जात दिखा ही दी।"मृत्युशैय्या पर पड़े हुए अपने सबसे वफादार नौकर पर चीख पड़े ठाकुर साहब।
"जिस राज़ को तूने उम्र भर अपने सीने में दबाये रखा,वो आज तेरी ज़ुबान पर कैसे आ गया?युवराज तेरा ही अंश है,लेकिन वो मेरा बेटा है।उसके हाथों मुखाग्नि की तुम्हारी अंतिम इच्छा कभी पूरी नही हो सकती।अपने वफादारी के बदले कुछ और माँग ले।"
"पिताजी!भोला की आखिरी इच्छा जरूर पूरी होगी।"
परदे की ओट से निकलते हुए युवराज ने कहा।
दूसरे दिन पुरे गाँव में ठाकुर साहब और युवराज की उदारता के चर्चे हो रहे थे।दूसरी ओर महल में बैठा युवराज अपने और भोला के अनोखे बंधन की गांठों को खोल रहा था जो उसने महसूस तो हमेशा किया लेकिन कभी जान नही पाया था।
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(36). श्री रोहित शर्मा जी 
पराया बेटा ( शीर्षक … बंधन)
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गाँव आने वाली बस के नदी में गिर जाने के  साथ ही  ग्यारह वर्षीय तेजा  के माँ और बाप दोनों जल समाधि ले गए थे। परिवार में एक  में सदस्य भी नही बचा था। पड़ोस के गांव के चौधरी राजबीर  ने सुना तो तेजा को अपने घर ले आये   और जानवरों का बाड़ा जिसे नोहरा कहते थे , उसमे एक कमरा दे दिया।
 
तेजा राजबीर  की पत्नी बिदामी के साथ घर के छोटे मोटे कामों में भी सहयोग करता रहता और आस पास बना रहता  था। राजबीर  की पत्नी बिदामी को वह माँ ही कह कर बुलाता था। बिदामी भी नोहरे में खाना पहुंचा कर ही खाना खाती थी। बड़ा  होकर तेजा  डेयरी का  काम करने लगा । कुछ दिनों बाद ही उसके गाँव वाले उसे लेने आगये। उसकी शादी पास के गाँव की लड़की से तय कर दी गयी थी। तेजा राजबीर के परिवार को छोड़कर जाने को तैयार नही था लेकिन गांव वालों के और भूरामल के समझाने से उनके साथ  चला गया। 
उस शाम को बिदामी के खाना नहीं भा रहा था। आखिर बिदामी थाली में खाना लगाकर तेजा के कमरे में रख कर आई और खाने का प्रयास करने लगी लेकिन निवाला गले से नीचे नही उतरा। उसने थाली खिसका दी और सोने चली गयी लेकिन नींद नही आई।पूरी रात आँखों में काट कर वह तड़के पौ फटते ही जानवरों से मन बहलाने के उद्देश्य से नोहरे में गयी । वहां उसके सुखद आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने देखा कि तेजा  खाना खाकर आराम से जानवरों के बीच सो रहा है । बिदामी रोते रोते उसके सिर पर हाथ फिराने लगी।बिदामी के स्पर्श से तेजा की आँख खुल गयी।
"तेरी तो शादी के नेग चल रहे हैं , तू यहाँ कैसे आया।"
" वहां  तेरे हाथ का खाना नहीं था माँ। मुझे पता है तूने भी नहीं खाया होगा। ". 
" बेटी तो परायी हो ही जाती है किशन  तू तो बेटा हो के भी पराया हो गया "
दोनों गले लिपट कर जोर से रोने लगे।
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(37). श्री रवि प्रभाकर जी। 

'बंधन'

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आज सोहन लाल माली की रिटायरमेंट थी। छोटे से लेकर बड़े तक सभी कर्मचारियों ने फूल मालाएं पहनाईं, उसकी सेवाओं की प्रशंसा की। चाय पार्टी समाप्त होने के बाद जब उसे दफ्तर की गाडी में बिठा कर रवाना किया जा रहा था तो वह अचानक फूट फूट कर रोने लगा। एक अधिकारी ने उसके कंधे पर हार्थ रखते हुए कहा:
"अरे क्या हुआ सोहन ? रो क्यों रहे हो ? रिटायर तो सभी को एक दिन होना ही है। क्या नौकरी जाने का दुख हो रहा है?"
"दुख नौकरी का नहीं साहिब, दुख इस बात का है कि मैं अपने लगाये पेड़ पौधों के बगैर कैसे रहूँगा। "
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भाई विनय कुमार जी, सीखना-सिखाना इस मंच का मूल मन्त्र रहा है। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि लघुकथा विधा सीखने वालों को एक मंच पर एकत्रित किया जाये, और हम सब एक दूसरे के अनुभवों से सीखें। सभी सुधि साथियों बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया, एक एक रचना पर खुल कर बात की उससे मुझे बेहद प्रसन्नता हुई। कोशिश रहेगी कि अगला आयोजन इस से भी बेहतर हो।

ओबीओ परिवार को इस आयोजन की सफलता के लिये बहुत बहुत बधाई । बहुत कुछ था यहाँ पाने को और पाया जी भर के । दो दिन कैसे फुर्र हो गये लघुकथाओं में डूबते हुए पता ही नहीं चला ।

विविध प्रकार के सघे - अनसघे हाथों से रचे कितनी रचनाओं को पढी ।जाना गहराई से कि वो रचना क्यों और कैसे अच्छी हुई तो वहीं इसमें क्या कमी रह गई । कमियों पर भी खूब खुलकर चर्चा हुआ जो लघुकथा के संदर्भ में बहुत ही सकारात्मक चीज़ हुई ।

आदरणीय रवि सर जी की लघुकथा का बहुत बेसब्री से इंतजार था मुझे । जैसे ही कथा पोस्ट हुई मै पढने बैठी , और रिप्लाई बाॅक्स में लिखा हुआ मेरा कमेंट अटक कर रह गया ... देखा तो १२ बज चुके थे । पहली बार रात के १२ बजने का बडा ही अफसोस हुआ । आदरणीय रवि सर जी की लघुकथा बेजोड़ बनी है । लघुकथा पढने के बाद मन को संतुष्टि सी हुई । सार्थक लघुकथा के लिए बधाई सर जी ।

आयोजन बडा़ ही रोचकता लिए हुए था । मुझे तो ऐसा लगा कि किसी बहुत बडे़ खुले आसमान के तले मीलों में पसरे जनसमूह के बीच यह आयोजन चल रहा है । हमारे ओबीओ प्रबंधक बीच - बीच में सबके पोस्ट को जैसे सही स्थान के व्यव्स्था में लगे हुए अपने लघुकथा आयोजन की सक्रियता को सार्थक स्वरूप दे रहे थे । नहीं लगा एक बार भी कि यह आॅनलाईन है । लगा जैसे मानो हम सब सामने बैठ कर इस आयोजन का हिस्सा बन रहे है । मै एक नये अनुभव से गुजरी हूँ और यह अविस्मरणीय है । अब आज से ही इंतजार रहेगा फिर से अगले आयोजन का । बधाई आप सभी को एक बार फिर से । सादर नमन
आदरणीया कांता जी ओबीओ के लाइव आयोजन सदैव ऐसा ही अनुभव देते है। जितनी ज्यादा सक्रियता उतना ही ज्यादा रोमांच और तीव्र अनुभव। कई बार आयोजन में सक्रियता और उसका सुखद अनुभव भाव विभोर कर देता है। इस आयोजन में आपकी सक्रियता के लिए साधुवाद और लघुकथा विधा पर आपके उर्वर विचार भी बहुत शानदार रहे। सादर।

आ० कान्ता रॉय जी, मुझे याद है आयोजन समाप्त होने के अगले रोज़ आपने मुझे कहा था कि ऐसा खाली खाली लग रहा है जैसे घर से बेटी की बरात विदा होने के बाद घर में बेरौनकी छा गई हो। सच कहता हूँ, मुझे भी वैसा ही महसूस हुआ था। जिस खुलेपन और अपनेपन वाले माहौल में यह आयोजन चला, उसका तो जवाब ही नहीं। अगली बार इससे भी अधिक तन्मयता से हम सब आयोजन में शरीक होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। आपकी बधाई सर आँखों पर।

आदरणीय अनुज

कोई भी संस्था तभी सशक्त और दीर्घायु होती है अब उसके सदस्य और अधिकारीगण संस्था के प्रति समर्पित होते हैं . यह समर्पण हमें हर आयोजन में आयोजक के चरित्र में मिलता है . कोई पीछे रहना जानता ही नहीं  जब तक उचित वैवश्य न हो . आपको इस त्वरित संकलन  के लिये  बधाई और हाँ, यदि कभी भेट हुयी तो आपको उस नीली सलवार वाली लड़की से भी मिलवाऊँगा , जिसके प्रति आपकी अदम्य  जिज्ञासा थी और एक अनुरोध करूंगा उस लड़की का नाम संशोधित करने की कृपा  करें -- रिद्धिमा . सादर .  

आपने बिलकुल सही फ़रमाया आ० गोपाल नारायण श्रीवातव जी। अब यहीं देख लीजिये, संकलन पर आई टिप्पणियों पर कितने दिन बाद धन्यवाद दे रहा हूँ। मुझे किसी नीली सलवार वाली लड़की से "एज़ सच" मिलने की इच्छा नहीं है अग्रज श्री।  मैंने ये सवाल आयोजन में आपकी लघुकथा पर पूछा था, क्योंकि वहां वो लड़की अचानक ही प्रकट हो गई थी।      

आदरणीय योगराज सर जी लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन हेतु आपको और सभी आदरणीय सुधिजनो को हार्दिक बधाई!इस गोष्ठी के प्रति आपकी मेहनत और समर्पण को सलाम करती हूँ।हमसभी नए लेखकों के लिए ये मंच बेहद सहयोगी और महत्व्पूर्ण साबित हो रहा है।आप सभी गुणीजनों से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है।बहुत बहुत धन्यवाद आपसभी के सहयोग के लिए।मेरी रचना को इस मंच पर स्थान देने हेतु साभार धन्यवाद।

दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० माला झा जी। अच्छी रचना को सदैव मंच पर स्थान मिलता ही मिलता है। और आशा करता हूँ कि अगले आयोजन में पूरा समय आप भी सक्रिय रहेंगी।

ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी-3 के सफल आयोजन पर सभी लेखकों और लघुकथा प्रेमियों को बहुत बहुत बधाई। मेरी एक अर्ज है लघुकथा की कक्षा भी शुरू की जाए। बहुत सारे नए लेखक इस विधा को सीखना चाहते हैं लेकिन उनको सीखने के लिए सही जगह नहीं मिल पा रही है वो इधर-उधर भटक रहे हैं। अगर ओबीओ पर हम जैसों को लघुकथा विधा को सीखने के लिए प्लेटफॉर्म मिल जाए तो बहुत मेहरबानी होगी।

भाई विनोद खनगवाल जी आपको भी बहुत बहुत बधाई। आश्वस्त रहें, ओबीओ पर लघुकथा की कक्षा पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। 

शानदार आयोजन की सफ़लता पर obo परिवार को तहेदिल से बधाई! परम आ० योगराज सर को नमन! आयोजन में भाग लेने वाले सभी रचनाकारों को बधाई व् प्रणाम! जो रचनाये मै समय पर नही पढ़ सका उन्हें इस संकलन में पढ़कर मन शांत हुआ! आ० रवि प्रभाकर जी को शानदार लघुकथा पर विशेष बधाई प्रेषित है!

सादर!

हार्दिक आभार भाई कृष्ण मिश्रा जी। भाई रवि प्रभाकर जी की लघुकथा वाकई सुन्दर हुई थी।

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Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post रोला छंद. . . .
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी ।"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . कागज
"आदरणीय जी सृजन पर आपके मार्गदर्शन का दिल से आभार । सर आपसे अनुरोध है कि जिन भरती शब्दों का आपने…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को मान देने एवं समीक्षा का दिल से आभार । मार्गदर्शन का दिल से…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
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Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"बंधुवर सुशील सरना, नमस्कार! 'श्याम' के दोहराव से बचा सकता था, शेष कहूँ तो भाव-प्रकाशन की…"
Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . कागज
"बंधुवर, नमस्कार ! क्षमा करें, आप ओ बी ओ पर वरिष्ठ रचनाकार हैं, किंतु मेरी व्यक्तिगत रूप से आपसे…"
Monday
Chetan Prakash commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post लघुकविता
"बंधु, लघु कविता सूक्ष्म काव्य विवरण नहीं, सूत्र काव्य होता है, उदाहरण दूँ तो कह सकता हूँ, रचनाकार…"
Monday
Chetan Prakash commented on Dharmendra Kumar Yadav's blog post ममता का मर्म
"बंधु, नमस्कार, रचना का स्वरूप जान कर ही काव्य का मूल्यांकन , भाव-शिल्प की दृष्टिकोण से सम्भव है,…"
Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"अच्छे दोहे हुए हैं, आदरणीय सरना साहब, बधाई ! किन्तु दोहा-छंद मात्र कलों ( त्रिकल द्विकल आदि का…"
Monday

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