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पद्य-साहित्य के इतिहास में कई बार यह समय आया है जब रचनाओं में कथ्य के तथ्य प्रभावी नहीं रह गये. रचनाओं से ’क्यों कहा’ गायब होने लगा और ’कैसे कहा’ का शाब्दिक व्यायाम महत्त्वपूर्ण होने लगा. अभिव्यक्तियाँ वाग्विलास और शब्द-कौतुक या अर्थ-चमत्कार की पोषक तथा आग्रही भर रह गयीं. पद्य-रचनाएँ सामान्य जन की भावनाओं, भाव-दशाओं या आवश्यकताओं से परे विशिष्ट वर्ग के मनस-विकारों को पोषित करने का माध्यम मात्र रह गयी थीं. ऐसे काल-खण्डों में साहित्य अपने हेतु से पूरी तरह से भटका हुआ प्रतीत हुआ है. चूँकि छन्द रचनाकर्म की अनिवार्यता हुआ करते थे, अतः इस पद्य-साहित्य में ऐसे अन्यथाकर्मों का सारा ठीकरा फूटा छन्दों पर. छन्दों को ही त्याज्य समझा जाने लगा. छन्द आधरित गेय रचनाओं या गीतों को ’मरणासन्न’ और, बादमें तो, ’मृत’ ही घोषित कर दिया गया. पद्य-संप्रेषणों के प्रयास के क्रम में गेयता के निर्वहन हेतु किया गया कोई प्रयास निरर्थक घोषित होने लगा. इसके बाद तो कविता के नाम पर जिस तरह की बोझिल और क्लिष्ट प्रस्तुतियों का दौर चला कि पहेलियाँ तक पानी भरें ! कई बार तो शुद्ध राजनीतिक नारों तक को कविता की तरह प्रस्तुत किया गया. यथार्थ-अभिव्यक्ति के नाम पर गद्यात्मक पंक्तियाँ, कई बार तो क्लिष्ट शब्दावलियों में शुद्ध गद्य-आलेख, ’यही नये दौर की कविता है’ कह कर ठेले जाने लगे. काव्य-तत्त्व की मूल अवधारणा से परे नये मंतव्यों को लादा गया. जनरुचि तक का कोई खयाल ही नहीं रखा गया. इस तथ्य पर किसी का ध्यान नहीं गया कि जिस भूमि के जन की सोच तक गीतात्मक हो, जहाँ के प्रत्येक अवसर और सामाजिक परिपाटियो के लिए सरस गीत उपलब्ध हों, उस जन-समाज से गीत छीन लेना कैसा जघन्य अपराध है ! मनुष्य के जीवन या इसके आस-पास का सारा व्यवहार एक नियत प्रवाह में, विशेष आवृतियों में हुआ करता है. धमनियों में होता रक्त-प्रवाह तक अनुशासित आवृतियों में हुआ करता है. श्वसन के रेचक एवं पूरक के अनैच्छिक संचालन में भी आवृतिजन्य क्रमबद्धता है. बिना नियत आवृति के प्रकृति का कोई व्यवहार नहीं होता. गीत या छान्दसिक रचनाओं, जो कि मनुष्य़ की प्राकृतिक भावनाओं, वृत्तियों और भावदशा के शाब्दिक स्वरूप हैं, के कथ्य बिना अंतर्गेयता के संभव ही नहीं हो सकते. यही कारण है कि छान्दसिक रचनाएँ सामान्य जन-मानस को इतनी गहराई से छू पाती हैं. तभी, छन्दों के हाशिये पर ठेले जाते ही पद्य-साहित्य, जो जन-समाज की भावनाओं का न केवल प्रतिबिम्ब हुआ करता है, बल्कि जन-समाज की भावनाओं को संतुष्ट भी करता है, रसहीन हो कर रह गया. परन्तु, ऐसी अतुकान्त परिस्थितियों में भी भावार्द्र रचनाकर्मी दायित्वबोध से प्रेरित हो, तो कई बार अपनी नैसर्गिक प्रवृति के कारण, लगातार बिना किसी अपेक्षा के गीतकर्म करते रहे. एक पूरे वर्ग का छान्दसिक रचनाओं पर सतत अभ्यास बना रहा. 

 

उपर्युक्त वैचारिकता के आलोक में नैसर्गिक भाव के सुकवि अरुण कुमार निगम का पद्य-साहित्य को लेकर सतत क्रियाशील रहना कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है. अरुण निगम ने छन्दसिक रचनाएँ ही नहीं की हैं, बल्कि प्रयुक्त छन्दों की विधाओं पर गहन अभ्यास भी किया है. उनकी अभ्यासी प्रवृति ही है, कि उनकी रचनाओं के तथ्यों में जहाँ आमजन के दैनिक-व्यवहार को स्थान मिलता है, वहीं प्रयुक्त छन्द के विधान से छान्दसिक रचनाओं की पंक्तियों में वर्ण और मात्रिक गणना से कोई समझौता हुआ अकसर नहीं दिखता. वर्णिक छन्दों में उनके शब्दों का चयन जहाँ निर्दिष्ट वर्ण के अनुसार ही होता है, मात्रिक छन्दों में आपके शब्दों का संयोजन तो बस देखते ही बनता है. इस कारण सामान्य से विषय़ भी छन्दोबद्ध हो कर अवश्य पठनीय हो जाते हैं. आपकी रचनाओं की विशेषता है तथ्य, शिल्प, भाव, रस के साथ-साथ रचनाओं में उपयुक्त शब्दों का सार्थक चयन का होना. इस कारण अरुण की रचनाओं की संप्रेषणीयता समुचित हुआ करती है. अरुण कुमार निगम का पहला काव्य-संग्रह इलाहाबाद के अंजुमन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है - ’शब्द गठरिया बाँध’. इस संग्रह में अरुण निगम ने कुल बाइस विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की हैं. यह अवश्य है कि दोहा और कुण्डलिया छन्द में आबद्ध रचनाओं की संख्या अधिक है. किन्तु अन्य छन्दों पर आधारित रचनाएँ भी अपने विषय और तथ्यों से ध्यानाकृष्ट करती हैं. सवैया छन्दों में दुर्मिल, मत्तगयंद और मदिरा सवैया में रचनाकर्म हुआ है. इसके अलावा वीर (आल्हा), मरहठा, सरसी, मरहठा माधवी, कामरूप, सार, छन्न पकैया, गीतिका, रोला, उल्लाला, चौपई, घनाक्षरी छन्दों में भी रचनाएँ प्रस्तुत हुई हैं. प्रयुक्त छन्दों की यह सूची स्पष्ट रूप से छन्दकार अरुण निगम की मेहनत की वकालत करती है. रचनाओं के विषय वस्तुतः कवि की जागरुकता और पैनी दृष्टि के साथ-साथ उसकी संवेदनशीलता के भी परिचायक हैं.

 

छन्दों से कवि का राष्ट्रप्रेम अभिव्यक्त हुआ है तो वहीं भारतीय वाक्-अस्मिता हिन्दी भाषा के प्रति अरुण निगम कह उठते हैं -  हिन्दी भारतवर्ष में पाय मातु सम मान / यही हमारी अस्मिता और यही पहचान ! या फिर, देवनागरी लिपि सरल, पढ़ने में आसान / लिपि उच्चारण एक हैं, हिन्दी बड़ी महान ।  कवि के सपनों के भारत में गाँव क्या स्वरूप है, इसे देखना प्रासंगिक होगा - धरे तिरंगा हाथ में, धरा धरा पर पाँव / यहीं बसाना है मुझे बापू वाला गाँव ॥ इसी क्रम में पुनः - मिट्टी के दीपक जले सुन्दर एक कतार / गाँव समूचा आज तो लगा एक परिवार

भारतीयता की निरन्तरता सर्वसमाही है, किन्त्, यह भी सच है कि इस भारतीयता का एक विशिष्ट स्वरूप है. रहा किनारे तैरता, पहुँचा ना मँझधार / वह क्या समझे बावरे, आँगन एक विचार ! इस दोहे की तासीर उस आत्मीयता के अर्थ साझा करती है जो भारतीय समाज का मूल रहा है. इसी आत्मीय भाव की अभिव्यक्ति इन शब्दों में हुई है - बरगद पीपल का जिसे, है मालूम महत्त्व / वही जान सकता है यहाँ, क्या है जीवन-सत्त्व ! देश की ऋतुएँ, देश के पर्व, पर्यावरण, जल-समस्याएँ, प्रकृति, जन-अनुशासन जिस कवि के विषय हों उसकी सोच की गहनता को सहज ही समझा जा सकता है. नववर्ष की अवधारणा को मिले शब्दों को देख कवि की सोच और उसके आयाम को कौन भारतीय अनुमोदित नहीं करेगा - चैत्र-शुक्ल की प्रतिपदा, सूर्योदय के साथ / हुआ जन्म इस सृष्टि का, चलों नवायें माथ । कवि ने षड्-ऋतुओं का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया है. कितने ललित शब्दों में हेमन्त ऋतु का वर्णन हुआ है - कोहरा रोके रास्ता ओस चूमती देह / लिपट-चिपट शीतल पवन जतलाती है नेह । या सावन ऋतु को शाब्दिक करता हुआ यह मत्तगयंद सवैया देखने योग्य है - सावन पावन है मन भावन, हाय हिया हिचकोलत झूलै / बाँटत बूँदनिया बदरी, बदरा रसिया रस घोरत झूलै / झाँझर झाँझ बजै झनकै, झमकै झुमके झकझोरत झूलै / ए सखि आवत लाज मुझे सजना उत मोहि विलोकत झूलै । उत्तर भारत में होली पर्व भी है तो त्यौहार भी है. अरुण निगम इस त्यौहार से खासे प्रभावित हैं. इस संग्रह में होली पर कई छन्द हैं.

 

परन्तु ऐसा भी नहीं है कि जन-समाज की समस्याओं या दारुण अवस्था पर कवि की दृष्टि नहीं गयी है. समाज की आर्थिक विषमता पर कवि की दृष्टि कितनी विन्दुवत है - चना उड़द गुड़ तिल शहद, इधर पहुँच से दूर / उधर नित्य सेवन करे मेवा और खजूर ! बाल-श्रम के उन्मूलन पर हो रहे बड़े-बड़े दावों के बीच वस्तुस्थिति क्या है यह छुपा हुआ सत्य नहीं है. ऐसे में कवि का इस विषय पर न कहना ही आश्चर्यचकित करता. कुण्डलिया छन्द के माध्यम से अरुण निगम ने बड़ा सीधा प्रश्न किया है - क्षुधा पूर्ति क्या सिर्फ़ है, जीवन का उद्येश्य ? / फिर तो देश समाज का गठन है निरुद्येश्य / गठन है निरुद्येश्य / सबल के मन है दुविधा / समझें यदि दायित्व / मिलेगी सबको सुविधा / नहीं असम्भव काज / करें समवेत प्रतिज्ञा / जीवन का उद्येश्य / सिर्फ़ क्षुधा पूर्ति क्या ?

देश की समस्याओं का मुख्य कारण आजकी कुत्सित विचारधारा की राजनीति और स्वार्थी राजनेता हैं. इस संदर्भ को शाब्दिक करती यह कुण्डलिया अत्यंत स्पष्ट है - झूठे निर्लज लालची भ्रष्ट और मक्कार / क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार ? / एक भली सरकार, चाहिये - उत्तम चुनिये / हो कितना भी शोर, बात मन की ही सुनिये / मन के निर्णय अरुण, हमेशा रहें अनूठे / देते मन को ठेस. लालची निर्लज झूठे ॥ इस क्रम में अरुण निगम यहीं नहीं रुकते. वीर या आल्हा छन्द में उनके विचार यों मुखर होते हैं - किसको जिम्मेवार बताएँ, किसके सर पर डालें दोष / किसके सम्मुख करें प्रदर्शन, प्रकट करें हम किस पर रोष ? / दोषारोपण छोड़ चलो हम, मिलजुल करें शुरुआत / हम सुधरें तो जग सुधरेगा’, सोलह आने सच्ची बात !  आगे, इसी छन्द पर समाधान हेतु विन्दुओं पर चर्चा करते हैं - जाति-धर्म का भेद भुला के, एक बनें हम मिल कर आज / शक्ति स्वरूपा भारत माँ का, क्यों ना हो फिर जग पर राज ? / नन्हें-नन्हें जीव सिखाते, आओ मिल कर करें विचार / मन्त्र एकता का अपनायें, करें देश का हम उद्धार ।  तो उधर, सामाजिक कुरीतियो पर भी अरुण निगम की कलम खूब चली है - पीने से घटता नहीं, बढ़ता है संताप / कहा बुज़ुर्ग़ों ने सदा, मदिरा पीना पाप । बेटियों के प्रति समाज के दृष्टिकोण पर आल्हा छ्न्द में ही क्या ही मारक पंक्तियाँ हुई हैं - मार दिया है मुझे गर्भ में, फिर भी मैं मानूँ उपकार / ऐसी दुनिया में क्या जीना, जहाँ सिर्फ़ है अत्याचार ? .. इसी क्रम में आगे - लूट नोंचा हत्या कर दी, और दिया वृक्षों पर टांग / न्याय दिलाया है कब किसने, सबके सब बस करते स्वांग

 

धरती पर जो आज प्रकृति तथा पर्यावरण की स्थिति है, उस पर अरुण निगम की संवेदना मुखर न होती, यह हो ही नहीं सकता था - बंजर धरती को कर डाला, पर्वत पर भी किये प्रहार / जंगल प्रतिदिन काट रहा है, जो हैं जीवन के आधार / निर्मल नदियों को कर दूषित, रहा हवा में नित विष घोल / कहाँ संतुलन रहा प्रकृति में, मैंने (भगवान ने) जो दी थी अनमोल । जल-संरक्षण की बात करते हुए कवि ने मरहठा छन्द में ताकीद किया है - जल है तो कल है, यदि निर्मल है, इसे अमिय सम जान / अनमोल धरोहर, इसमें ईश्वर, यह है ब्रह्म समान / अपशिष्ट बहा मत, व्यर्थ गँवा मत, सँभल अरे नादान / तेरी नादानी, मूरख प्रानी, भुगतेगी संतान ।  सच में आज पेय जल का मिलना सबसे बड़ी समस्या है. अरुण निगम ने समाधान हेतु दोहा छन्द में बहुत ही उपयोगी बात की है - हार्वेस्टिंग कम्पलसरी, तब हो नक्शा पास / मिलकर करना चाहिए, सबको खूब प्रयास ॥ इतना ही नहीं वे मास और ऋतु को भी इंगित करते हैं - जल संरक्षण कीजिए, आया है आषाढ़ / जल जीवन सम्बन्ध को, कीजे और प्रगाढ़

 

इस छन्द-संग्रह में एक ऐसा छन्द भी स्थान पाया है जिसके प्रति शास्त्रीय वाङ्मय कुछ नहीं कहता. वह छन्द है कह-मुकरिया या मुकरिया. अमीर खूसरो को इसका जन्मदाता माना जाता है. आधुनिक काल में इस छन्द के प्रमुख कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हुए. इन पर कवि अरुण निगम की सोच खूब कुलाँचें भरती हुई दिखी है. कुछ बानग़ियाँ - बातों से होता मिठलबरा / मन से होता है चितकबरा / नाव डुबोता, जब भी खेता / ए सखि साजन ? .. ना सखि नेता ! या, बुरी-भली पहचान बनाए / संग न छोड़े लाख छुड़ाए / कभी-कभी तो ला दे शामत / ए सखि साजन, ना सखि आदत

 

संग्रह की भाषा में आंचलिकता की छौंक वाचन में सरस लगती है. परन्तु यह भी सही है, कि कई प्रस्तुतियों में आंचलिकता का प्रभाव इतना अधिक है कि ऐसी हिन्दी से अपरिचित पाठकों को क्लिष्टता का बोध हो सकता है. सवैया जैसे छन्दों में आंचलिक शब्दों और विन्यास की विवशता समझ में आती है. जहाँ वर्णों की नियत आवृति होती है. शुद्ध हिन्दी में ऐसे छन्दों में रचनाकर्म असंभव नहीं, तो दुरूह अवश्य है. इसी तरह कई प्रस्तुतियाँ तनिक और समय मांगती हुई प्रतीत होती हैं. एक दोहा द्रष्टव्य है - काट-काट कर बाँटता, निशिदिन देता पीर / कब तक आखिर बावरे, धरती धरती धीर ।  इस दोहे से कर्ता ही ग़ायब है. स्पष्ट नहीं है कि कौन काट-काट कर बाँटता है और क्या बाँटता है ? यानि कर्म भी सापेक्ष नहीं है. वैसे सोच को और खींचा जाय तो यह अवश्य भान होता है कि मनुष्य की बात हो रही है, जो धरती को काट-काट कर बाँटता है. लेकिन ऐसे उदाहरण रचनाओं में छन्द की व्यवस्था को सही नहीं ठहराते. इसी कारण, इस दोहे में ’धरती’ शब्द का यमक अलंकार भी बहुत प्रभावित नहीं करता. सवैया खण्ड में कतिपय सवैये दो-दो पदों पर तुकान्तता बनाते हैं जो विधासम्मत नहीं है. क्योंकि सवैया चारों पदों में सम-तुकान्तता वाला छन्द है. कई प्रस्तुतियाँ अपने विषय और विन्यास से बहुत प्रभावित नहीं करतीं. उनका विस्तार सही नहीं हुआ है. तो कई प्रस्तुतियों पर अपेक्षित समय नहीं दिया गया है, या, कथ्य का वर्णन शब्द-कौतुक के कारण मूल तथ्य को संप्रेषित नहीं कर पाया है.

 

किन्तु, यह भी उतना ही सही है, कि आजके समय में जब कविताओं की पंक्तियों में गेयता साधने में नव हस्ताक्षरों के पसीने छूट रहे हों, विभिन्न छन्दों में हुआ रचनाकर्म अरुण निगम को एक अलग ही पंक्ति का कवि घोषित करता है. यह भी एक कटु सत्य है, कि पद्य-प्रयासकर्ताओं की हाल की करीब तीन पीढ़ियाँ इसी विभ्रम और उलझन में खप गयीं कि गीति-तत्त्व या गेयता रचनाकर्म की आवश्यकता भी या नहीं. आज जब पुनः गेयता को अनिवार्य ही नहीं संप्रेषण का मूल हिस्सा मानने के प्रति आश्वस्ति बन रही हो, तो छन्दों के प्रति समझ तथा इनके विधानों का ज्ञान महत्त्वपूर्ण ही नहीं आवश्यक हो जाता है. इसी अभ्यास से गीतों को भी साधा जाता है. स्पष्ट करते चलें, छन्द से मुक्तता के बावज़ूद प्रस्तुतियो की पंक्तियों में अंतर्गेयता का निर्वहन हो सकता है. ऐसी समझ का विकसित होना भी गंभीर छन्द-प्रयास से ही संभव है. भावनाओं एवं अनुभूतियों का शाब्दिक होना एक बात है और उनका सुगढ़ ढंग से संप्रेषित होना एकदम से दूसरी बात. यह सुगढ़ता यदि शाब्दिकता के सापेक्ष हो तो माध्यम की भूमिका अपरिहार्य हो जाती है. कविता भी संप्रेषण का एक ढंग है. यह रचनाकार के दीर्घकालीन सतत प्रयासों तथा कवि के सुहृद व्यक्तित्व एवं ललित-भाव का परिचायक है. कविता है, तो उसमें कविता-तत्त्व का होना आवश्यक है. अन्यथा हर पद्य-संप्रेषण कविता नहीं होता. अनुभूति-संप्रेषणों में गीति-तत्त्व का विद्यमान होना भारतीय परिवेश के संप्रेषणों का प्राकृतिक गुण है. कवि अरुण निगम का अभ्यास श्लाघनीय है. वैसे, यह स्पष्ट है कि तनिक और दिया गया समय संग्रह की प्रस्तुतियों की गठन में समुचित सहायक ही होता.

 

अंजुमन प्रकाशन से साहित्य-सुलभ संस्करण 2015 में सम्मिलित यह काव्य-संग्रह सस्ते मूल्य पर पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है. जहाँ इस संस्करण के अंतर्गत आठ अन्य लेखकों-कवियों की पुस्तकों के सेट का प्रकाशन हुआ है. इन आठों की समवेत कुल कीमत रु. 160/ मात्र है.

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काव्य-संग्रह : शब्द गठरिया बाँध

रचनाकार - अरुण कुमार निगम

संपर्क - 9907174334

ई-मेल - arun.nigam56@gmail.com

पता - एच.आई.जी, I/24, आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन

पता - 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद - 211003 (यूपी)

संपर्क - 9453004398

ई-मेल - anjumanprakashan@gmail.com

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Replies to This Discussion

आ0  सौरभ जी

'शब्द गठरिया बाँध'  की सुष्ठु आलोचना से आलोड़ित मन में  बार-बार गूंजता है-

"मनुष्य के जीवन या इसके आस-पास का सारा व्यवहार एक नियत प्रवाह में, विशेष आवृतियों में हुआ करता है. धमनियों में होता रक्त-प्रवाह तक अनुशासित आवृतियों में हुआ करता है. श्वसन के रेचक एवं पूरक के अनैच्छिक संचालन में भी आवृतिजन्य क्रमबद्धता है. बिना नियत आवृति के प्रकृति का कोई व्यवहार नहीं होता."

        कवि  अरुण कुमार निगम के छंद वर्चस्व से ओ बी ओ का मंच अनुप्राणित है .  आपने काव्य कृति के धवल पक्षों पर ही अपने विचार नहीं प्रकट किये अपितु उसे अधिकाधिक ऊर्जस्वित करने की संभावनाओं पर भी प्रकाश डाला है . आलोचक का सही धर्म भी यही है की वह आपकी भाँति  निर्मम पाठक हो .

        गेयता के बिना  काव्य  वैसा ही है जैसे प्राण के बिना शरीर . खेद है की निष्प्राण शरीर को आज का कवि मिस्र  की ममीज की भांति संरक्षित करना चाहता  है , उसे विरहा, चैती आर मल्लाह के गीतों का रस पता ही नहीं है  i ऐसे में -

 "यह भी एक कटु सत्य है, कि पद्य-प्रयासकर्ताओं की हाल की करीब तीन पीढ़ियाँ इसी विभ्रम और उलझन में खप गयीं कि गीति-तत्त्व या गेयता रचनाकर्म की आवश्यकता भी या नहीं. आज जब पुनः गेयता को अनिवार्य ही नहीं संप्रेषण का मूल हिस्सा मानने के प्रति आश्वस्ति बन रही हो, तो छन्दों के प्रति समझ तथा इनके विधानों का ज्ञान महत्त्वपूर्ण ही नहीं आवश्यक हो जाता है."

            आपकी अद्भुत साहित्यिक मनीषा  से पोर -पोर सजी यह सुष्ठु समालोचना  सुधी पाठकों को आश्वस्त करेगी, इसका मुझे विश्वास  है . सादर .

बहुत अच्छी सार्थक ,विस्तृत ,न्यायसंगत समीक्षा की है आपने आ० सौरभ जी,जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं |अरुण निगम जी की रचनाएँ मैं ब्लोगिंग के समय से पढ़ती आ रही हूँ तथा बहुत प्रभावित भी हूँ उनकी ये पुस्तक अवश्य पढना चाहूँगी |अरुण निगम जी को भी ढेरों बधाई.  

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