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रमल मुरब्बा सालिम  

2122   2122

क्या  ज़माने आ गये हैं ?

बेशरम  शर्मा  गये  हैं  I

 

था  भरोसा बहुत उनका

वे मगर उकता गये हैं I

 

पोंछ लें आंसू कृषक अब 

स्वर्ण वे  बरसा गये हैं I

 

देखकर   अंदाज   तेरे

हौसले  मुरझा  गये है I

 

लाजिम है हो नशा भी

जाम जब टकरा गये हैं I

 

भौंकते थे जो कभी वह

महफ़िलों में छा गये है I

 

एक झटका था जरा सा

देश तक भहरा गये हैं I   

  

मर रह ही है देव नदियाँ

सिन्धु सब घबरा गये है I

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 25, 2015 at 10:09am

आ० वामनकर जी

आप हौसला भी बढाए  और मार्ग दर्शन भी करें , सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 2:14am

वाह सर अभ्यास अभ्यास में बढ़िया और बेहतरीन ग़ज़ल 

अब आपकी ग़ज़लों में अनुभव का कमाल आने लगा है 

आपकी लगन को नमन 

और इस कमाल की ग़ज़ल पर ढेर सारी दाद 

युवा गज़लकार का ग़ज़ल संग्रह बनना आरम्भ हो गया है 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 14, 2015 at 12:35pm

प्रिय कृष्णा

आपका बहुत आभार .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 13, 2015 at 11:15pm

शानदार गज़ल!अभिनन्दन आ० गोपाल सर!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 9:07pm

आ० समर कबीर साहिब

आपका  शुक्रिया . सादर .

Comment by Samar kabeer on June 11, 2015 at 2:33pm
बेशर्म की जगह बेहया ठीक है,लेकिन ग़ज़ल को एक बार और सुना तो मतले में एक गुंजाइश और निकल आई,ज़माने बहुवचन है ,मतला इस तरह ठीक हो जाएगा :-

"दिन ये कैसे आ गए हैं
बेहया शर्मा गए हैं"
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 10:52am

आ० विनय जी

आपका  सादर आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 10:51am

आ० केवल भाई

आभार प्रिय .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 10:50am

आ० निकोर जी

सादर चरण स्पर्श और आभार.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 11, 2015 at 9:39am

आ0 गोपाल भाई जी,  गज़ल की  प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारे. सादर

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