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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 48 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 18 अप्रैल मार्च 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 48 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
 


इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था शक्ति छन्द.

 

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

**********************************************************************

आदरणीय गिरिराज भंडारीजी

 

भरोसे  किसी  के न भूखे  मरें

ज़मीं है हमारी  हमीं कुछ  करें

इसी खेत से  जान पायी  कभी

इसी भूमि को जान दें हम सभी

 

झुके चंद इंसा यही कर रहे

समय मांगता जो वही कर रहे

कृपा ईश पाई, कि पानी भरा

चलो रोप के धान हो लें हरा

 

सही भावना से  ज़मीं को ज़ियें

कहो फिर कभी अश्क़ काहे पियें

धरा खुश रहे, एक को सौ करे  

मगर आदमी है कि फिर भी डरे

*************************

 

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

 

शहर गाँव में है खुशी की लहर।    
हुई तेज बरसात आठों पहर।।
नहाये सड़क अंगना घर गली।
लगे खूब वर्षा शहर की भली।।

कृषक हैं परेशान सरकार से।  
दुखी हैं हड़पनीति की मार से।।
इमारत खड़ी मुँह चिढ़ाती हुई।
कृषक को अँगूठा दिखाती हुई।।

जुताई - सफाई - बुआई करें।
बढ़े पौध तब ये रुपाई करें।।
सुबह शाम मर-मर कमाई करें।
निशा में गमों की बिदाई करें।।
(संशोधित)

******************

 

आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी

 

प्रगति की हवा तेज गति से बहे

सभी मूल्य नैतिक हमारे ढहे

प्रभावित हुई ग्राम औ ग्राम्यता

हुई आज हावी शहर सभ्यता

 

उगे खेत में आधुनिक मॉल है

अनोखे भवन के मकड जाल है

हुई लुप्त अब खेत से दिव्यता

लुभाते निकेतन लिये भव्यता

 

बढ़ी लोक संख्या शहर भागती

धरा की कमी नित हमें सालती

सियासत तले माफिया भू पलें

उभय आज भोले कृषक को छलें

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

निरंकुश प्रगति की झलक देख लें

मिली जो विरासत उसे लेख लें

शहर गाँव में अब घुसे से लगें

कृषक बन्धु हतप्रभ ठगे से लगें  

इधर धान रोपें कृषक टोलियाँ  

उधर लग रहीं हैं भवन बोलियाँ

कृषक आत्म हत्यार्थ मजबूर हैं

प्रशासक मगर क्यों बने सूर हैं ?

 

वही कर सके है जगत का भला
भलाई लिये जो परख कर चला 
करें लक्ष्य का हम चयन तो सही 
कहे जा रही है सिमटती मही

(संशोधित)

*********************

 

आदरणीया राजेश कुमारीजी

 

यहाँ आज मौसम हरा ही हरा

बड़ा खेत जल से लबालब भरा

कई हैं इमारत यहीं पास में

लगें भीगती भाद्र के मास में

 

दिखे खेत ये तो शहर से सटा

किनारे किनारे विटप  की छटा

यहाँ  चार जन काम में व्यस्त हैं

लगाते हुए धान ये मस्त  हैं 

 

बनाते कतारें कई रोप की

सिरों पे लगा  टोपियाँ धूप की

लगे काम में पैंट काली पहन

कड़ी धूप बारिश करें ये सहन

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

अनोखा नजारा दिखे मित्र ये

जमीनी हकीक़त बुने चित्र ये

उधर उच्च अट्टालिकाएँ खड़ी

इधर घूमती  जीविका की घड़ी

 

कृषक धान देखो उगाते हुए

कदम से कदम ये मिलाते हुए

मिटाते हुए  वर्ग की खाइयाँ

दिखे नीर में चार परछाइयाँ

 

भवन गाँव से हैं लिपटते हुए

दिखें खेत खुद में सिमटते हुए

धरा,राज के बीच में है ठनी

यहाँ आज खेती मुसीबत बनी

**************************    

 

आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव

    

अजंता सदृश  एक प्रतिमा बड़ी         

शहर की इमारत समुन्नत खड़ी       

मनुज वारि-श्रम से बनाया हुआ        

हरित वृंत  भी है सजाया हुआ         

 

किसी फार्म हाउस सरीखा बना

विरल है, नहीं दृश्य कोई घना  

किनारे-किनारे  कई  मेड़  है

सभी तो लिये धान की बेड़ है

 

अभी खेत में  नीर भी है भरा 

शहर के जवां  मर्द देखो ज़रा

यहाँ धान की पौध सत्वर जगे

इसी  हेतु  सब रोपने में लगे

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

नजारा  सुहाना  नजर आ रहा

यहाँ  रोपते  धान  बाबू  अहा

हंसी  खेल यारों  किसानी नहीं

किसानी नही, गर जवानी नही

 

कि  साहिब वहां ऐश फरमा रहे 

यहाँ  मातहत  सब मरे जा रहे        

किसी के  लिए है अटाले महल

किसी को हमेशा भुगतनी टहल

 

कही  मंजिले-मन्जिले  हैं  खड़ी

कहीं  फूस  की एक चादर पड़ी

किसी को नहीं रास सुख आ रहा

कहीं व्यर्थ जीवन चला जा रहा

******************************

 

आदरणीय  रमेश कुमार चौहानजी

 

कई लोग पढ़ लिख दिखावा करे ।

जमी काज ना कर छलावा करे ।।

मिले तृप्ति ना तो बिना अन्न के ।

रखे क्यो अटारी बना धन्न के ।।

 

भरे पेट बैठे महल में कभी ।

मिले अन्न खेती किये हैं तभी ।।

सभी छोड़ते जा रहे काम को ।

मिले हैं न मजदूर भी नाम को ।।

 

न सोचे करे कौन इस काज को ।

झुका कर कमर भेद दें राज को ।।

चलें आज हम रोपने धान को ।

बढ़ायें धरा धाम के शान को ।।

 

द्वितीय पस्तुति

 

शहर के किनारे इमारत खड़े ।

हरे पेड़ हैं ढेर सारे अड़े ।

सटे खेत हैं नीर से जो भरे ।

कृषक कुछ जहां काम तो हैं करे ।।

 

हमें दे रहे दृश्य संदेश है ।

गगन पर उड़े ना हमें क्लेश है ।

जमी मूल है जी तुम्हारा सहीं ।

तुम्हें देख जीना व मरना यहीं ।।

 

करें काज अपने चमन के सभी ।

न छोड़े वतन भूलकर के कभी ।।

बसे प्राण तो गांव के खेत में ।

मिले अन्न जिनके धुली रेत में ।।

***********************

 

आदरणीय लक्ष्मण धामी

 

उगा गाँव के तट नगर आज है

भवन जो  उठा सर रहे नाज है

मगर एक गरिमा  रही खेत की

बुझाता  सदा अग्नि वह पेट की

 

जुते रात दिन जो फसल के लिए

वही हाथ  निर्धन  बरस भर जिए

मरे भूख  से  आज हलधर जहाँ

फले  खेत कैसे  भला  तब वहाँ

 

बिकेगा  सहज  खेत क्यों ना भला

सदा हाकिमों   ने  उसे  है  छला

कलम पीर तुम ही लिखो खेत की

इबारत   मिटाओ   उठो   रेत  की

****************************

 

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

 

मिले खेत में काम करते सभी

खिलें फूल से मन सभी के तभी

खड़ीं देख कर दूर अट्टालिका,

यहाँ पुष्प से ही सजी,वाटिका |

 

बिना प्रेम के क्या करे चाकरी

जुडें है यहाँ दे सभी हाजरी |

बजाते रहे खेत में नौकरी

बचा डूब से खेत क्यारी भरी |

 

सभी गाँव में कष्ट की ये घड़ी,

खता क्या हुई आपदा आ पड़ी | .. ..  (संशोधित)

सभी एक हो खेत में जा पिलें

करें आस सोना यही से मिलें |

******************************

 

सौरभ पाण्डेय

 

उधर जब विलासी रहन दिख रहा

इधर कौन जीवन रहन लिख रहा ?

दिखे खेत इतना न बेगार हों

नफ़ा क्या कृषक जब बचे चार हों

 

नहीं खेत-खलिहान मैदान हैं 

दिखें मॉल-बिल्डिंग दूकान हैं 

कहो सभ्यता तंत्र कैसा यहाँ ?

धरा को मिला शत्रु मानव जहाँ ?

 

मनुज जो भरोसा नयन में भरे

प्रकृति माँ सरीखी सुपोषित करे

धरा शस्यश्यामा सुशोभित गगन

यही गोद सबकी रहें जो मगन

************************

 

आदरणीय हरि प्रकाश दुबेजी

 

पिया खेत को बेच कर क्या मिला !
जरा सा टका  था पता कब चला !!
पिता की विरासत ख़तम हो गयी !
कहानी हमारी चली –थम गयी !!

पिया लालचों ने हमें क्या दिया !
छतों का सहारा हमारा गया !!
जमीन हमसे छिन हमारी गयी !
जहाँ देखिये  मंजिलें बन गयीं !!

अब तो इक तरफ बस  भगवान है !
इस तरफ घर  हमार शमशान है !!
उगा चल शमशान  पर धान जई !
चल शुरू कर फिर जिंदगी इक नई !!

*************************

 

डॉ प्राची सिंह

 

चढ़ाए हुए जींस घुटनों तलक

हराते हुए दोपहर की धधक

सदा कर्मरत अन्नदाता रहे

अकथ वेदना रात दिन वो सहे

 

धरा गाँव की या बसा हो नगर

चुनौती भरी है कृषक की डगर

जले दीप सा वो गले मोम सा

दहन सर्वहित वो सदा होम सा

 

लिए पीर सागर, हृदय में तपन

मरे अन्नदाता! करें कुछ मनन!

गठित हो कृषक राह अब नव चुने

बधिर तंत्र क्या वेदना को सुने ?  ...................  (संशोधित)

***************************

 

आदरणीय अशोक रक्तालेजी

 

झुकी जो कमर धान को रोपते,

उन्ही पर दिखा जग वजन थोपते,

न गौरव मिला है इन्हें काज से

न अट्टालिकाएं झुकी लाज से

 

बदल की नहीं आस है दूर तक

भरा नीर है प्यास है दूर तक

खड़े वृक्ष मन में उदासी लिए

गगन ताकता है उबासी लिए.

************************

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Replies to This Discussion

आपका कहना एकदम सही है, आदरणीया राजेश कुमारीजी.
सदस्यों से ऐसी निर्लिप्तता का कारण समझ नहीं आया.

शक्ति छन्द का विन्यास इतना सहज होने के बावज़ूद सदस्यों का आयोजन से दूर रहना मात्र यही दर्शाता है कि छन्द को ही कतिपय सदस्य त्याज्य समझते हैं.


क्या इस मंच पर अब रचनाकर्म कैटेगरियों में आबद्ध हो कर किया जायेगा ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका पूछा जाना आवश्यक है.

यह व्यक्तिगत प्रश्न कत्तई नहीं है. हाँ, यह भी सुनने में आया है कि कुछ ’विद्वान सदस्य’ कई प्रशिक्षुओं को ’एक ही विधा पर ध्यान दो’ कहकर भटकाते अवश्य हैं.
सादर

आदरणीय सौरभ सर, ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, अंक- 48 के सफल आयोजन और त्वरित संकलन हेतु हार्दिक आभार एवं बधाई निवेदित है. लाइव महोत्सव के बाद ही मैं यात्रा पर निकल गया, इस कारण इस आयोजन में सहभागिता एवं सक्रियता नहीं निभा पाया, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ. यात्रा के दौरान व्यस्तता एवं इंटरनेट की दिक्कत के चलते आयोजन की समस्त रचनाओं को पढ़ नहीं पाया एवं प्रतिक्रिया नहीं दे पाया, इसके लिए समस्त रचनाकारों से भी क्षमा चाहता हूँ. मंच और आयोजन से दूर रहना मेरे लिए हमेशा कष्टदायक होता है, किन्तु कुछ जिम्मेदारियां और भी है जिन्हें नकारा नहीं जा सकता. खैर आज आयोजन में संकलित समस्त रचनाओं को पढ़ रहा हूँ.

 

आदरणीय गिरिराज सर, आदरणीय अखिलेश सर एवं आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी की प्रस्तुतियों पर तो आयोजन के दौरान ही प्रतिक्रिया दे चुका था किन्तु शेष कुछ रचनाओं को पढ़कर भी प्रतिक्रिया नहीं दे सका तथा कुछ रचनाएँ पढ़ नहीं सका अतः उन रचनाओं पर आज प्रतिक्रिया दे रहा हूँ-

 

आदरणीया राजेश दीदी की प्रथम प्रस्तुति में सुन्दर शब्द-चित्र है वहीँ दूसरी प्रस्तुति ने मुग्ध कर दिया.जिसकी ये पंक्तियाँ चित्र के भावों को अभिव्यक्त करती मुग्ध कर रही है-

 

भवन गाँव से हैं लिपटते हुए

दिखें खेत खुद में सिमटते हुए

धरा,राज के बीच में है ठनी

यहाँ आज खेती मुसीबत बनी

 

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर की दोनों सुन्दर प्रस्तुतियों में दूसरी प्रस्तुति की इन पंक्तियों ने मुग्ध कर दिया-

 

कि  साहिब वहां ऐश फरमा रहे 

यहाँ  मातहत  सब मरे जा रहे        

किसी के  लिए है अटाले महल

किसी को हमेशा भुगतनी टहल

 

आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी की दोनों प्रस्तुतियां सुन्दर हुई है इन बहुत सुन्दर पंक्तियों के लिए बहुत बहुत बधाई-

 

न सोचे करे कौन इस काज को

झुका कर कमर भेद दें राज को

चलें आज हम रोपने धान को

बढ़ायें धरा धाम के शान को

 

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी की इन पंक्तियों ने मुग्ध कर दिया –

 

 

बिकेगा  सहज  खेत क्यों ना भला

सदा हाकिमों   ने  उसे  है  छला

कलम पीर तुम ही लिखो खेत की

इबारत   मिटाओ   उठो   रेत  की

 

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला सर की प्रस्तुति और उनकी सहभागिता सदैव प्रेरित करती है उनकी रचना की इन पंक्तियों की सहजता प्रभावित करती है –

 

बिना प्रेम के क्या करे चाकरी

जुडें है यहाँ दे सभी हाजरी

बजाते रहे खेत में नौकरी

बचा डूब से खेत क्यारी भरी

 

 

आदरणीय सौरभ सर की रचना बेहतरीन है मुग्ध हो गया पढ़कर......  किन्तु इस पद के लिए कोटि-कोटि नमन-

 

मनुज जो भरोसा नयन में भरे

प्रकृति माँ सरीखी सुपोषित करे

धरा शस्य श्यामा सुशोभित गगन

यही गोद सबकी रहें जो मगन

 

आदरणीय हरिप्रकाश दुबे भाई जी की प्रस्तुति और छंद पर प्रयास प्रशंसनीय है, इस पद में छंद को बखूबी निभाया है-

 

पिया खेत को बेच कर क्या मिला

जरा सा टका  था पता कब चला

पिता की विरासत ख़तम हो गयी

कहानी हमारी चली –थम गयी

 

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी की चित्र के मूल भाव को अभिव्यक्त करती प्रस्तुति ने मुग्ध कर दिया, इन पंक्तियों में कृषक की वेदना को जिस तरह से अभिव्यक्त किया है उस भाव तक जोड़ने लिए नमन-

 

धरा गाँव की या बसा हो नगर

चुनौती भरी है कृषक की डगर

जले दीप सा वो गले मोम सा

दहन सर्वहित वो सदा होम सा

 

सभी रचनाकारों को सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई.

विलम्ब से प्रतिक्रिया देने के लिए पुनः क्षमा चाहता हूँ.

सादर

 

 

नमन आप की साहित्य साधना को भाई मिथिलेश जी।

आदरणीय मिथिलेशजी, आपकी संलग्नता और आपका दायित्वबोध दोनों अनुकरणीय है. जब ललक सीखने की हो तो समय और रास्ता सब निकल आते हैं. इस विन्दु को आपने अपनी पहुँच से साबित किया है.
हार्दिक धन्यवाद ..

सभी रचनाओं पर प्रतिक्रिया आपकी लगन और साहत्य साधना की परिचायक है श्री मिथिलेश वामनकर जी | रचना पर आपकी सहज प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार |

आदरणीय सौरभ भाईजी 

छंदोत्सव के सफल आयोजन और  संकलन के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आभार ।

संकलन के पूर्व ही कुछ संशोधन कर चुका था पर संकलन में वही पंक्तियाँ विधा के अनुरूप मिलीं । संशोधन पश्चात पूरी रचना पुनः पोस्ट कर रहा हूँ।  संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें 

सादर 

शहर गाँव में है खुशी की लहर।    

हुई तेज बरसात आठों पहर।।

नहाये सड़क अंगना घर गली।

लगे खूब वर्षा शहर की भली।।

 

 

कृषक हैं परेशान सरकार से।                             

दुखी हैं हड़पनीति की मार से।।                          

इमारत खड़ी मुँह चिढ़ाती हुई।

कृषक को अँगूठा दिखाती हुई।।

 

जुताई - सफाई - बुआई करें।

बढ़े पौध तब ये रुपाई करें।।

सुबह शाम मर-मर कमाई करें।

निशा में गमों की बिदाई करें।।

...........................................

आदरणीय अखिलेशभाईजी, आपकी इस टिप्पणी पर विलम्ब से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ.
आपने पूरी रचना को प्रस्तुत कर हमारा काम कितना आसान किया है आपको कह नहीं सकता.
सहयोग और सहभागिता केलिए हार्दिक आभार.
सादर

परम आदरणीय सौरभजी सादर प्रणाम,

चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, अंक- 48 के सफल आयोजन और त्वरित संकलन हेतु हार्दिक आभार एवं बधाई निवेदित है.

छन्दोत्सव आयोजन के दौरान ही एक विवाह समारोह में सरीक होने हेतु मुंबई से इलाहाबाद के लिए प्रस्थान कर चुका था, इस कारण इस आयोजन में जैसे तैसे अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से  सहभागिता तो दर्ज करा ली किन्तु अपनी प्रस्तुतियों पर प्राप्त उत्साहवर्धक एवं मार्गदर्शक टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में धन्यवाद ज्ञापित करने तथा आयोजन में अन्य रचनाकारों की श्रेष्ठतम रचनाओं का आनन्द लेने से वंचित रहा जिसका मुझे खेद है  इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ.  

 

आज घर पहुंचकर आयोजन में संकलित समस्त रचनाओं के साथ साथ आयोजन के दौरान रचनाकारों की रचनाओं पर  प्राप्त प्रतिक्रियात्मक टिप्पणियों को पढ़ रहा हूँ जो सीखने के दृष्टी से बेहद उपयोगी है.  

 

समस्त सहभागी रचनाकारों को आयोजन में उनकी सहभागिता और उत्तम सरस भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु दिल से बधाई प्रेषित करता हूँ तथा आयोजन में मेरी रचना पर मार्गदर्शक एवं प्रोत्साहित करती प्रतिक्रियाओं के  लिए समस्त गुनीजनों का हार्दिक आभार मानता  हूँ.

 

 //आदरणीय, शिल्प की दृष्टि से इसी प्रस्तुति को तनिक हेर-फेर कर और संप्रेषणीय बनाया जा सकता है. एक कोशिश कर रहा हूँ. ताकि आपकी दृष्टि और व्यापक हो और हम सभी लाभान्वित हों -//

//आप उपर्युक्त परिवर्तनों को सुधार के लिए सुझाव न मान कर केवल संप्रेषणीयता के लिहाज से पंक्तियों को साधे जाने की तरह देखें.

आप इससे भी बेहतर कर सकते हैं, आदरणीय//

 

   आदरणीय, आपकी उपस्थिति रचना को संतुष्टि प्रदान करती है, मंच द्वारा उपलब्ध जानकारी एवं आपके  मार्गदर्शन में मैं निरंतर रचना कर्म साधने का प्रयास कर रहा हूँ  मेरे इस प्रयास को सराहने के साथ साथ विषय से जुड़े तथ्य एवं महत्वपूर्ण जानकारी को साझा करने हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद.

 

संप्रेषणीयता की दृष्टि से शिल्प में तनिक हेर फेर करने की कला को  संज्ञान में लेकर भविष्य में बेहतरीन रचना कर्म करने का  प्रयास करूँगा आदरणीय

 

सादर धन्यवाद 

आदरणीय सत्यनारायणजी, आप इलाहाबाद आये तो कमसेकम सूचित करना था. यदि मैं उस दौरान अपने गृहनगर में होता तो अवश्य ही हमारी सापेक्ष भेंट होती. आपके दर्शन से हम भी लाभान्वित होते.
वैसे, आदरणीय भाईजी, हमारा मन इस सूचना से अत्यंत प्रसन्न है कि आप लम्बी यात्राएँ कर रहे हैं और आपका स्वास्थ्य इसकी पूर्ण अनुमति दे रहा है.
उत्त्म स्वास्थ्य तथा सुगढ़ साहित्यकर्म के लिए बारम्बार हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय.
आपकी निरंतर सहभागिता केलिए आभार

परम आदरणीय सौरभजी सादर प्रणाम,

 

     आदरणीय, एक माह  की लम्बी यात्रा का मन बना कर ही यहाँ से निकला था परन्तु टॉयफाइड बुखार के कारण यात्रा अधूरी छोड़कर घर मुझे वापस आना पड़ा. आपकी कृपा से अब स्वस्थ  हूँ.  चिता का कोई कारण नहीं है शायद खान पान के चलते ऐसा हुआ होगा.

 

     इसी कारण आपके गृहनगर नैनी (शंकरढाल चक रघुनाथ) में ६ – ७ दिन बिताने के  बावजूद भी आपसे संपर्क नहीं कर सका एवं आपके आशीर्वाद एवं दर्शन से वंचित रहा. जिसका मुझे बेहद खेद है.  हम चाहकर भी आदरणीय कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ईश्वरेच्छा बलीयसी होती है, निकट भविष्य में जल्द ही आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो यही नेक कामना सदैव ईश्वर से  चाहता हूँ.

 

     उत्तम स्वास्थ्य तथा सुगढ़ साहित्यकर्म के लिए प्रेषित हार्दिक शुभकामनाओं के लिए आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ .  

 

     रचना में आपके सुझाव एवं परिवर्तन का मैं सदा सम्मान करता  हूँ.  अतएव आपसे निवेदन है की, यदि संभव हो तो आप द्वारा सुझाए गए परिवर्तनो से ही मेरी मूल रचना को प्रतिस्थापित कर मुझे अनुग्रहित करें. आदरणीय

 

निरंकुश प्रगति की झलक देख लें

मिली जो विरासत उसे लेख लें

शहर गाँव में अब घुसे से लगें

कृषक बन्धु हतप्रभ ठगे से लगें  

इधर धान रोपें कृषक टोलियाँ  

उधर लग रहीं हैं भवन बोलियाँ

कृषक आत्म हत्यार्थ मजबूर हैं

प्रशासक मगर क्यों बने सूर हैं ?

          

वही कर सके है जगत का भला
भलाई लिये जो परख कर चला 
करें लक्ष्य का हम चयन तो सही 
कहे जा रही है सिमटती मही

                          - संशोधित  

 

    सादर धन्यवाद.    

      

 

आदरणीय सत्यनारायण जी,
आपके सुझाव के अनुसार आपकी संकलित रचना को संशोधित कर दिया गया है.

आपका सदा स्वागत है.

सादर

सादर धन्यवाद आदरणीय

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