मैं तो प्रेम रस से
बादलों की तरह
भरा हुआ
बेचैन था
तुम पर बरसने को
मगर
तुमने पुकारा ही नहीं मुझको
सूखी
प्यासी
व्याकुल
दरकती हुयी जमीन बनकर
मेरा बरस जाना
जरूरी थी
क्योंकि
मैं भरा चुका था
अन्दर से
पूरी तरह
मेरी हदों से बाहर
निकला प्रेम रस
आँखों की कोरों से फूटकर
अश्रुधार बनकर
और बरसता रहा
उम्र भर
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी बहुत बहुत शुक्रिया
आ० कटारा जी
आपके गीत से आपके हृदय का पता चलता है . सादर .
आदरणीय Shyam Mathpal जी आभार
आदरणीयमिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया
सुन्दर भावाभिव्यक्ति ... हार्दिक बधाई
Aadarniya Katara ji,
Bahut sundar aarambh aur utna hi acchha ant. Hridaysparshi rachna ke liye badhai.
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारियाजी शुक्रिया
आदरणीय maharshi tripathiजी शुक्रिया
आदरणीय Dr. Vijai Shankerजी शुक्रिया
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